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जैनविद्या - 20-21 क्योंकि उष्णता की अग्नि से और ज्ञान की आत्मा से पृथक् सत्ता ही नहीं है अथवा कुशूल के स्वातन्त्र्य के समान दृष्टान्त से जाना जाता है। जैसे - देवदत्त कुशूल को तोड़ रहा है - इसमें कुशूल की भेदन-क्रिया में जब स्वतंत्रता की विवक्षा की जाती है तब कुशूल स्वयं ही नष्ट हो रहा है, क्योंकि भेदन-क्रिया तो कुशूल में हो रही है, तब कुशूल स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही करण बन जाता है। उसी प्रकार आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञान होकर कर्ता एवं करण रूप बन जाता है। अर्थात् आत्मा ज्ञान के द्वारा जानता है, इसमें अभिन्न कर्ता-करण है।
प्रश्न :- कर्ता और कर्म में एकता मानने पर लक्षण का अभाव होगा, क्योंकि 'युट्' प्रत्यय होता है।
उत्तर :- ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि व्याकरण शास्त्र में कहे गये 'युट्' और 'णिच्' प्रत्यय कर्ता आदि सभी साधनों से पाये जाते हैं। भावकर्म में कहे गये 'त्य' प्रत्यय करणादि में देखे जाते हैं। जिससे स्नान करता है - स्नानीय चूर्ण, जिसके लिए देता है - वह दानीय अतिथि, समावर्तन किया जाता है, वह समावर्तनीय गुरु कहलाता है। इसी प्रकार करणाधिकरण और त.वा. 1/1/25 कर्मादि में युट् प्रत्यय देखा जाता है। जैसे - खाता है वह निरदन, प्रस्कन्दन जिससे होता है वह प्रस्कन्दन । इसी प्रकार सातों ही विभक्ति से होनेवाले शब्दों में युट् प्रत्यय होता है।
एक ही अर्थ में शब्दभेद होने से व्यक्तिभेद देखा जाता है जैसे कि 'गेहं कुटी मठः' यहाँ एक ही घररूप अर्थ में विभिन्न लिंगवाले शब्दों का प्रयोग है । 'पुष्य, तारका, नक्षत्रम्' यहाँ एक ही तारा रूप अर्थ में विभिन्न लिंगक और विभिन्न वचनवाले शब्दों का प्रयोग है। इसी प्रकार ज्ञान शब्द विभिन्न लिंगवाला होते हुए भी आत्मा का वाचक है।2
'दर्शन ज्ञान चारित्राणि' में तीनों की प्रधानता होने से बहुवचन का प्रयोग किया गया है। जैसे - 'प्लक्षन्नग्रोधपलाशाः' इसमें अस्ति आदि समान काल क्रियावाले प्लक्षादि के परस्पर अपेक्षा होने से और सर्व पदार्थ प्रधान होने से इतरेतन योग में द्वन्द्व समास और बहुवचन का प्रयोग है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अस्ति आदि समान क्रिया, काल और परस्पर सापेक्ष होने से इतरेतर द्वन्द्व और सर्वपदार्थ प्रधान होने से बहुवचनान्त का प्रयोग किया गया है।
'भुजि' के समान सम्यक् विशेषण की परिसमाप्ति प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए अर्थात् द्वन्द्व समास के साथ कोई भी विशेषण चाहे वह आदि में प्रयुक्त हो या अन्त में, सबके साथ जुड़ जाता है। जैसे - गुरुदत्त, देवदत्त, जिनदत्त को भोजन कराओ, इसमें भोजन क्रिया का तीनों में अन्वय हो जाता है। वैसे ही प्रशंसावचन सम्यक् शब्द का अन्वय दर्शनादि तीनों के साथ होता है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ।
उपर्युक्त उदाहरण प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के हैं। पूरे तत्त्वार्थवार्तिक में इस प्रकार की सैकड़ों चर्चायें हैं। विशेष अध्ययन करनेवालों को इन्हें ग्रन्थ से देखना चाहिए। इससे अकलंकदेव का व्याकरण के सभी अङ्गों का तलस्पर्शी ज्ञान सूचित होता है।