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जैनविद्या
20-21
स्वामित्व आदि की योजना की गई है। प्रथम अध्याय के 20वें सूत्र की व्याख्या में द्वादशांग के विषयों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। आगम में 363 मिथ्यामत बतलाए गए हैं । तत्त्वार्थवार्तिक में 8वें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में 363 मतों का प्रतिपादन इस प्रकार है -
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परोपदेश से होनेवाला मिथ्यादर्शन क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक मत के भेद से चार प्रकार का है । कौक्कल, माण्डेविद्धि, कौशिक, हरि, श्मश्रवान्, कपिल, रमेश, हारित, अश्वमुण्ड, आश्वलायन आदि के विकल्प से क्रियावादी मिथ्यादृष्टियों के 84 भेद हैं। मरीचि, कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रशूति, वाट्ठलि, माडर, मौद्गल्यायन आदि दर्शनों के भेद से अक्रियावादियों के 180 भेद हैं। साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्ययमुग्नि, चारायण, काठ, माध्यन्दिनी, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, स्विष्टिकृत, ऐतिकायन, वसु, जैमिनी आदि मतों के भेद से अज्ञानवाद मिथ्यात्व के 67 भेद हैं। वशिष्ठ, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिण, सत्यदत्त, व्यास, ऐलपुत्र, उपमन्यव, इन्द्रदत्त, अपस्थूलादि मार्ग के भेद से वैनयिक मिथ्यात्व के 32 भेद हैं । इस प्रकार 363 मिथ्या मतवाद हैं । 56
यही कहा गया है कि आगम प्रमाण से प्राणिवध को धर्म का हेतु सिद्ध करना उचित नहीं है, क्योंकि प्राणिवध का कथन करनेवाले ग्रन्थ के आगमत्व की असिद्धि है। 7 1-21-22 की व्याख्या में अवधिज्ञान का विषय, 2-7 की व्याख्या में सन्निपातिक भावों की चर्या, 2-49 की व्याख्या में शरीरों का तुलनात्मक विवेचन, तीसरे अध्याय की व्याख्या में अधोलोक और मध्यलोक का विवेचन, पाँचवें अध्याय की व्याख्या में जैनों के षट्द्द्रव्यवाद का निरूपण, छठे अध्याय में आस्रव, सातवें में जैनाचार, आठवें में कर्मसिद्धान्त, नवें में मुनि आचार तथा ध्यान तथा दसवें में मोक्ष का विवेचन अवलोकनीय है। 58
व्याकरणिक वैशिष्ट्य - अकलंकदेव व्याकरण शास्त्र के महान् विद्वान थे। पाणिनीय व्याकरण तथा जैनेन्द्र व्याकरण का उन्होंने भली-भाँति पारायण किया था । व्युत्पत्ति और कोश ग्रन्थों का उनका अच्छा अध्ययन था । तत्त्वार्थवार्तिक में स्थान-स्थान पर सूत्रों एवं उसमें आगत शब्दों का जब वे व्याकरण की दृष्टि से औचित्य सिद्ध करते हैं तब ऐसा लगता है जैसे वे शब्दशास्त्र लिख रहे हों। इस प्रकार के सैकड़ों स्थल प्रमाण रूप में उद्धृत किए जा सकते हैं । जैसे
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ज्ञानवान में मत्तुप प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है, क्योंकि ज्ञानरहित कोई आत्मा नहीं है । जैसे कहा जाता है कि यह रूपवान् है, रूप में मत्तुप प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है, क्योंकि रूपरहित कोई पुद्गल नहीं है। 59
विभक्त कर्त्ता और अविभक्त कर्त्ता के भेद से करण दो प्रकार के हैं । जिसमें करण और कर्त्ता पृथक्-पृथक् होते हैं, उसे विभक्त कर्तृक (करण) कहते हैं। जैसे
'देवदत्त परशु से वृक्ष को काटता है', इसमें परशु (कुल्हाड़ी) रूप करण देवदत्तरूप कर्ता से भिन्न है। जिसमें कर्ता से अभिन्न करण होता है, उसको अविभक्तकर्तृक (करण) कहते हैं । जैसे उष्णता से अग्नि ईंधन को जलाती है, इसमें उष्णता रूप करण अग्नि रूप कर्ता से अभिन्न है। इसी प्रकार आत्मा ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानता है - यह अविभक्तकर्तृक (करण) है,