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________________ 72 जैनविद्या - 20-21 उपकार करेगा, इसके लिए दिया गया दान, व्रती, शील, भावना आदि की वृद्धि करेगा, इसकी यह विधि है। इस प्रकार का अनुसन्धान-प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्वोत्तर क्षण विषयक ज्ञान, संस्कार आदि के ग्राहक एक ज्ञान का अभाव है। अत: इस पक्ष में दानविधि नहीं बन सकती। प्रथम अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में अनेकान्तवाद का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि विज्ञानाद्वैतवादियों के सिद्धान्त में बाह्य परमाणु एक नहीं है, किन्तु तदाकार परिणत विज्ञान ही परमाणु संज्ञा को प्राप्त होता है । ये ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इन तीन शक्तियों का अधिकरण एक विज्ञान को स्वीकार करते हैं । इसलिए अनेक धर्मात्मक एक वस्तु में विरोध नहीं है। __ अन्यत्र कहा गया है कि जिसके सिद्धान्त से आत्मा ज्ञानात्मक ही रहता है - उसके सिद्धान्त में आत्मा के ज्ञानरूप परिणमन का अभाव होगा, क्योंकि ज्ञानरूप से वह स्वयं परिणत है ही, परन्तु जैन सिद्धान्त में किसी पर्याय की अपेक्षा अन्य रूप से ही आत्मा का परिणमन माना जाये वा इतर रूप से ही परिणमन माना जाये तो फिर उस पर्याय का कभी विराम नहीं हो सकेगा। यदि विराम होगा तो आत्मा का भी अभाव हो जायेगा। अद्वैतवाद-समीक्षा - अद्वैतवादी द्रव्य को तो मानते हैं, किन्तु रूपादि को नहीं मानते। उनका यह कहना विपरीत है। यदि द्रव्य ही हो, रूपादि नहीं हो तो द्रव्य का परिचायक लक्षण न रहने से लक्ष्यभूत द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा। इन्द्रियों के द्वारा सन्निकृष्यमाणं द्रव्य का रूपादि के अभाव में सर्व आत्मा (अखण्ड रूप से) ग्रहण का प्रसङ्ग आएगा और पाँच इन्द्रियों के अभाव का प्रसङ्ग आएगा, क्योंकि द्रव्य तो किसी एक भी इन्द्रिय से पूर्ण रूप से गृहीत हो ही जायेगा। परन्तु ऐसा मानना न तो इष्ट ही है और न प्रमाण प्रसिद्ध ही है अथवा जिनका सिद्धान्त . है कि रूपादि गुण ही है, द्रव्य नहीं है, उनके मत में निराधार होने से रूपादि गुणों का भी अभाव हो जायेगा। उपर्युक्त वादों की समीक्षा के साथ जैन दार्शनिक मान्यताओं का समर्थन अकलंकदेव ने प्रबल युक्तियों द्वारा किया है। इस दृष्टि से प्रथम अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में सप्तभङ्गी का निरूपण, 9वें से 13वें सूत्र तक ज्ञानविषयक विविध विषयों की आलोचना, अन्तिम सूत्र की व्याख्या में ऋजुसूत्र का विषय निरूपण, द्वितीय अध्याय के 8वें सूत्र की व्याख्या में आत्मनिषेधक अनुमानों का निराकरण, चतुर्थ अध्याय के अन्त में अनेकान्तवाद के स्थापनपूर्वक नयसप्तभङ्गी और प्रमाणसप्तभङ्गी का विवेचन, पाँचवें अध्याय के 24वें सूत्र की व्याख्या में अपरिणामवादियों द्वारा परिणामित्व पर आए दोषों का निराकरण, व्यासभाष्य के परिणाम के लक्षण की आलोचना तथा क्रिया को ही काल माननेवालों का खण्डन दर्शनशास्त्र के महत्वपूर्ण विषय हैं।" आगमिक वैशिष्ट्य - तत्त्वार्थसूत्र में आगमिक मान्यताओं को निबद्ध किया गया है। टीकाकारों ने इन सूत्रों की व्याख्या युक्ति और शास्त्र के आधार पर की है। अकलंकदेव का तत्त्वार्थवार्तिक भी इसका अपवाद नहीं है। प्रथम अध्याय के 7वें सूत्र की व्याख्या में निर्देश,
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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