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जैनविद्या - 20-21
पाँचवें अध्याय के अठाहरवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि यदि कोई (बौद्ध) ऐसा कहे कि आकाश नाम की कोई वस्तु नहीं है, केवल आचरण का अभावमात्र है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है। आकाश आवरण का अभाव मात्र नहीं है, अपितु वस्तुभूत है, क्योंकि नाम के समान उसकी सिद्धि है। जैसे नाम और वेदना आदि अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी सत् हैं, ऐसा जाना जाता है; उसी प्रकार अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी आकाश वस्तुभूत है, ऐसा जाना जाता है। 46
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पाँचवें अध्याय के 19वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध किया गया है कि विज्ञान में सामर्थ्य का अभाव होने से मन विज्ञान नहीं है। क्षणिक वर्तमान विज्ञान पूर्व और उत्तर विज्ञानों से जब कोई सम्बन्ध नहीं रखता, तब गुण-दोष विचार और स्मरणादि व्यापार में कैसे सहायक बन सकता है 47
पाँचवें अध्याय के 22वें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि क्षणिक एकान्तवाद में प्रतीत्यवाद को स्वीकार करने से उसकी प्रक्रिया में जितना कारण होगा उतना कार्य होगा, अतः उनके भी वृद्धि नहीं होगी। किं च सर्व के क्षणिक होने से अंकुर का और उसके अभिमत कारण भौमरस, उदकरस आदि का विनाश होगा या पौर्वापर्य (क्रम) से । यदि कार्य और कारणों का युगपत् नाश होता है तो उनके द्वारा वृद्धि क्या होगी ? क्योंकि वृद्धि के कारण जब स्वयं नष्ट हो रहे हैं, तब वे अन्य विनश्यमान पदार्थ की क्या वृद्धि करेंगे? अर्थात् विनश्यमान पदार्थ अन्य विनश्यमान पदार्थ की वृद्धि करते हुए लोक में नहीं देखे जाते । यदि कार्य-कारण क्रमशः नष्ट होते हैं, तब भी नष्ट अंकुर का भौमरस, उदकरस आदि क्या कर सकते हैं? अथवा विनष्ट रसादि अंकुर का क्या कर सकेंगे? अनेकान्तवाद में तो अंकुर या भौमरसादि सभी पदार्थ द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं और पर्यायदृष्टि से क्षणिक हैं । अतः वृद्धि हो सकती है 148
कारणतुल्य होने से कार्यतुल्य होना चाहिए, ऐसा कहने में आगम-विरोध आता है, क्योंकि बौद्ध अविद्यारूप तुल्यकारणों से पुण्य- अपुण्य और अनुभय संस्कारों की उत्पत्ति मानते हैं । 49
सल्लेखना पर बौद्धों द्वारा आपत्ति किये जाने पर कहा है कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं, इस प्रकार कहनेवाले क्षणिकवादी के स्वसमय विरोध है, उसी प्रकार जब सत्व (जीव), सत्व संज्ञा (जीव का ज्ञान), वधक (हिंसक) और वधचित्त ( हिंसा) इन चार चेतनाओं के रहने पर हिंसा होती है, ऐसा कहनेवाले (इस मतवादी) के जब आत्मवधक चित्त ही नहीं है, तब सल्लेखना करनेवाले के आत्मघात का दोष देने पर स्वसमय (स्ववचन) विरोध आता है ।
सातवें अध्याय के 38वें सूत्र की व्याख्या में दान के प्रसंग में कहा गया है कि प्रतिग्रह आदि क्रियाओं में आदर विशेष विधि विशेष है। सर्व पदार्थों को निरात्मक मानने पर विधि आदि रूप का अभाव हो जाता है। जिस दर्शन में निरात्मक (क्षणिक) है, उस दर्शन में विधि आदि की विशेषता नहीं हो सकती। यदि विधि आदि की विशेषता है तो सर्वभाव निरात्मक है - इस सिद्धान्त के व्याघात का प्रसङ्ग आता है। क्षण मात्र आलम्बनरूप विज्ञान में इस बात की सिद्धि नहीं होती । जब ज्ञान सर्वथा क्षणिक है तब तप, स्वाध्याय और ध्यान में परायण यह ऋषि मेरा