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जैनविद्या - 20-21 ___ पाँचवें अध्याय के 24वें सूत्र की व्याख्या में स्फोटवादी मीमांसकों के विषय में कहा गया है कि वे मानते हैं कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं । वे क्रम से उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। अत: उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होनेवाला, अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट मानना उचित नहीं, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्य-व्यंजक भाव नहीं है।
सांख्य दर्शन-समीक्षा - प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में विभिन्न वादियों की मोक्ष की परिभाषा के साथ सांख्य दर्शन की मान्यता की ओर भी निर्देश किया गया है। सांख्य यद्यपि प्रकृति और पुरुष का भेद-विज्ञान होने पर स्वप्न में लुप्त हुए विज्ञान के समान अनभिव्यक्त
चैतन्यस्वरूप अवस्था को मोक्ष मानता है, तथापि कर्मबन्धन के विनाशरूप मोक्ष के सामान्य लक्षण में किसी को विवाद नहीं है।”
प्रथम अध्याय में आकाश के प्रदेशों की अनन्तता के विषय में आपत्ति होने पर बौद्ध और वैशेषिक द्वारा अनन्त को मान्यता दिये जाने का उल्लेख करते हुए सांख्य सिद्धान्त के विषय में कहा गया है कि सांख्य सिद्धान्त में सर्वगत होने से प्रकृति और पुरुष के अनन्तता कही गई है।
जैनधर्म में धर्म और अधर्म द्रव्य को गति और स्थिति में साधारण कारण माना है। यदि ऐसा न मानकर आकाश को सर्वकार्य करने में समर्थ माना जायेगा तो वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य सिद्धान्त से विरोध आएगा। उदाहरणार्थ सांख्य सत्व, रज और तम ये तीन गुण मानते हैं । सत्व गुण का प्रसाद और लाघव, रजोगुण का शोध और ताप तथा तमोगुण का आवरण और सादनरूप भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं। यदि व्यापित्व होने से आकाश को ही गति एवं स्थिति में उपग्रह (निमित्त) मानते हैं तो व्यापित्व होने से सत्व को ही शोषतापादि रजोगुणधर्म और सादन आवरण आदि तपोधर्म मान लेना चाहिए। रज, तम गुण मानना निरर्थक है तथा और भी प्रतिपक्षी धर्म हैं, उनको एक मानने से संकर दोष आयेगा। उसी प्रकार सभी आत्माओं में एक चैतन्यरूपता
और आदान-अभोगता समान है, अतः एक ही आत्मा मानना चाहिए, अनन्त नहीं अर्थात् आत्मा में भी चैतन्य भोक्तृ आदि समान होने से सर्व आत्मा में एकत्व का प्रसङ्ग आएगा।"
पाँचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि जैसे अमूर्त भी प्रधान पुरुषार्थ प्रवृत्ति से महान् अहंकार आदि विकाररूप से परिणत होकर पुरुष का उपकार करता है, उसीप्रकार अमूर्त धर्म और अधर्म द्रव्य को भी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में उपकारक समझना चाहिए।
सांख्य का आकाश को प्रधान का विकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा की तरह प्रधान के भी विकाररूप परिणमन नहीं हो सकता।
प्रश्न : सत्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्य अवस्था ही प्रधान है, उस प्रधान में उत्पादक स्वभावता है। उस प्रधान के विकार महान्, अहंकार आदि हैं तथा आकाश भी प्रधान का एक विकार है।