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जैनविद्या - 20-21
पाँचवें अध्याय के 25वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध किया गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु स्कन्ध के ही भेद हैं तथा स्पर्श, रस, शब्द आदि स्कन्ध की पर्यायें हैं। इससे नैयायिक के इस सिद्धान्त का खण्डन किया गया है कि पृथ्वी में चार गुण, जल में गन्धरहित तीन गुण, अग्नि में गन्ध और रस रहित दो गुण तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है। ये सब पृथिव्यादि जातियाँ भिन्न-भिन्न हैं।”
सल्लेखना के प्रसङ्ग में कहा गया है कि जो वादी (नैयायिक) आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं, यदि उनके पुनः साधुजन सेवित सल्लेखना करनेवाले के लिए आत्मवध दूषण है तो ऐसा कहनेवाले के आत्मा को निष्क्रिय मानने की प्रतिज्ञा खण्डित हो जाती है। निष्क्रियत्व स्वीकार करने पर आत्मवध की प्राप्ति नहीं हो सकती।
दान के प्रसङ्ग में कहा गया है कि आत्मा में नित्यत्व, अज्ञत्व और निष्क्रियत्व मानने पर दानविधि नहीं बन सकती। जिनके सिद्धान्त में सत्स्वरूप आत्मा अकारण होने से कूटस्थनित्य • है और ज्ञानादि गुणों से भिन्न होने से (अर्थान्तरभूत होने से) आत्मा अज्ञ है और सर्वगत होने से निष्क्रिय है, उनके भी विधिविशेष आदि से फलविशेष की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी आत्मा में कोई विकार-परिवर्तन की सम्भावना नहीं है।"
पाँचवें अध्याय के दूसरे सूत्र की व्याख्या में नैयायिकों के 'द्रव्यत्व योगात्द्रव्य' की विस्तृत समीक्षा की गई है।
चार्वाक दर्शन-समीक्षा - पाँचवें अध्याय के 22वें सूत्र में शरीरादि को पुद्गल का उपकार कहा है। उक्त प्रसंग में कहा गया है - तन्त्रान्तरीया जीवं परिभाषन्ते, तत्त्वार्थं इति । अर्थात् अन्य वादी (चार्वाकादि) जीव को पुद्गल कहते हैं, वह कैसे? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्र कहा गया है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले पुद्गल हैं।
मीमांसा दर्शन-समीक्षा - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों की एकता से मोक्ष होता है, इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के प्रसंग में अन्य मतों की समीक्षा के साथ मीमांसा के इस सिद्धान्त की भी समीक्षा की गई है कि क्रिया से ही मोक्ष होता है।
प्रथम अध्याय के बारहवें सूत्र की व्याख्या में प्रत्यक्ष के लक्षण के प्रसंग में बौद्ध, वैशेषिक और सांख्य की समीक्षा के साथ मीमांसकों के इस मत की समीक्षा की गई है कि इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न होनेवाली बुद्धि प्रत्यक्ष है। मीमांसकों के इस मत को स्वीकार किया जाएगा अर्थात् इन्द्रियनिमित्त से होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाएगा तो आप्त को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। __ पाँचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र में कहा गया है कि अपूर्व नामक धर्म (पुण्य-पाप) क्रिया से अभिव्यक्त होकर अमूर्त होते हुए भी पुरुष का उपकारी है अर्थात् पुरुष के उपभोग साधनों में निमित्त होता ही है, उसी प्रकार अमूर्त धर्म और अधर्म द्रव्य को भी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में उपकारक समझना चाहिए।