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________________ 66 जैनविद्या - 20-21 प्रथम अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या में ज्ञाता और प्रमाण भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा माननेवाले वैशेषिक के अज्ञत्व दोष आता है, इसका विवेचन किया है। यदि ज्ञान से आत्मा पृथक् है तो आत्मा के घट के समान अज्ञत्व का प्रसङ्ग आएगा। ज्ञान के योग से ज्ञानी होता है, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो स्वयं अज्ञानी है वह ज्ञान के संयोग से ज्ञानी नहीं हो सकता। जैसे जन्म से अन्धा दीपक का संयोग होने पर भी दृष्टा नहीं बन सकता, इसी प्रकार अज्ञ आत्मा भी ज्ञान के संयोग से ज्ञाता नहीं हो सकता। प्रथम अध्याय के बत्तीसवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि वैशेषिकों का मत है कि प्रतिनियत (भिन्न-भिन्न) पृथ्वी आदि जाति विशिष्ट परमाणु से अदृष्टादि हेतु के सन्निधान होने पर एकत्रित होकर अर्थान्तरभूत घटादि कार्यरूप आत्मलाभ होता है, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वैशेषिक के अनुसार परमाणु नित्य है, अतः उसमें कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव है। ___ इसी प्रकार प्रथम अध्याय के पहले मंगलाचरण में मोक्ष के कारणों के विषय में विभिन्न वादियों के मतों का कथन करते हुए न्यायदर्शन की मान्यता की ओर संकेत किया गया है कि वे मानते हैं कि ज्ञान से ही मोक्ष होता है। तत्वज्ञान से सभी के उत्तर (मिथ्याज्ञान) की निवृत्ति हो जाने पर उसके अनन्तर अर्थ है, उसकी भी निवृत्ति हो जाती है। मिथ्याज्ञान के अनन्तर क्या है? दोष है, क्योंकि दोष मिथ्याज्ञान का कार्य है। दोष कार्य होने से दोष के अनन्तर प्रवृत्ति है, क्योंकि दोष के अभाव में प्रवृत्ति का अभाव है। प्रवृत्ति के उत्तर जन्म है, प्रवृत्ति का कार्य होने से। प्रवृत्तिरूप कारण के अभाव में जन्मरूप कार्य का भी अभाव हो जाता है। जन्म के उत्तर दुःख है, इसलिए जन्म के अभाव में दुःख का भी नाश हो जाता है। अत: कारण की निवृत्ति होने पर कार्य की निवृत्ति होना स्वाभाविक है। आत्यन्तिक दु:ख की निवृत्ति होना ही मोक्ष है, क्योंकि सुख-दुःख का अनुपयोग ही मोक्ष कहलाता है। जैनदर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समग्रता के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे रसायन के ज्ञानमात्र से रसायनफल अर्थात् रोगनिवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसमें रसायन श्रद्धान और रसायनक्रिया का अभाव है। पूर्ण फल की प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास, ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक है। उसी प्रकार दर्शन और चारित्र के अभाव में ज्ञानमात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।15 नैयायिक मानते हैं कि शब्द आकाश का गुण है, वह वायु के अभिघात आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता, निराधार गुण नहीं रह सकते, अतः शब्द अपने आधारभूत गुणी आकाश का अनुमान करता है, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि पौद्गलिक होने से पुद्गल का विकार ही शब्द है, आकाश का गुण नहीं है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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