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जैनविद्या - 20-21
वैशेषिक दर्शन-समीक्षा - तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में सांख्य, वैशेषिक और बौद्धों के मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। वैशेषिक आत्मा के बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म और संस्कार रूप नव विशेष गुणों के अत्यन्त उच्छेद को मोक्ष कहते हैं । ऐसा मानते हुए भी कर्मबन्धन के विनाशरूप मोक्ष के सामान्य लक्षण में किसी को विवाद नहीं है।
वैशेषिक के मत से द्रव्य, गुण और सामान्य पदार्थ पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र हैं, इसलिए उनके मत में उष्ण गुण के योग से अग्नि उष्ण है - ऐसा कहा जा सकता है, स्वयं अग्नि उष्ण नहीं हो सकती। अयुतसिद्धलक्षण समवाय यह इसमें है, इस प्रकार की बुद्धि प्रवृत्ति का कारण होता है, इसलिए गुण-गुणी में अभेद का व्यपदेश होता है और इस समवाय सम्बन्ध के कारण ही उष्णत्व के समवाय से गुण में उष्णता तथा उष्ण गुण के समवाय से अग्नि उष्ण हो जाती है।
इसके उत्तर में अकलंकदेव ने कहा है कि ऐसा नहीं है, स्वतंत्र पदार्थों में समवाय के नियम का अभाव है। यदि उष्ण गुण एवम् अग्नि परस्पर भिन्न हैं तो ऐसा कौन-सा प्रतिविशिष्ट नियम है कि उष्ण गुण का समवाय अग्नि में ही होता है, शीत गुण में नहीं। उष्णत्व का समवाय उष्ण गुण में ही होता है - शीत गुण में नहीं, इस प्रकार का प्रतिनियम दृष्टिगोचर नहीं होता।
इसके अतिरिक्त समवाय के खण्डन में अनेक युक्तियाँ दी गई हैं - 1. वृत्यन्तर का अभाव होने से समवाय का अभाव है।
2. समवाय प्राप्ति है, इसलिए उसमें अन्य प्राप्तिमान का अभाव है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के कथन में व्यभिचार आता है।'
दीपक के समान समवाय स्व और पर इन दोनों का सम्बन्ध करा देगा, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, ऐसा मानने पर समवाय में परिणामित्व होने से अनन्यत्व की सिद्धि होगी।
इन सब कारणों से गुणादि को द्रव्य की पर्यायविशेष मानना युक्तिसंगत है।
वैशेषिक मानते हैं कि इच्छा और द्वेष से बन्ध होता है। इच्छा-द्वेषपूर्वक धर्म और अधर्म में प्रवृति होती है। धर्म से सुख और अधर्म से दुःख होता है तथा सुख-दुःख से इच्छा-द्वेष होते हैं । विमोही के इच्छा-द्वेष नहीं होते, क्योंकि तत्वज्ञ के मिथ्यादर्शन का अभाव है। मोह ही अज्ञान है। विमोही षट्पदार्थ तत्व के ज्ञाता वैरागी यति के सुख-दु:ख, इच्छा और द्वेष का अभाव है। इच्छा-द्वेष के अभाव से धर्म, अधर्म का भी अभाव हो जाता है। धर्म-अधर्म के अभाव में नूतन शरीर और मन के संयोग का अभाव हो जाता है। शरीर और मन के संयोग के अभाव में जन्म नहीं होता, वह मोक्ष है।' इस प्रकार अज्ञान से बन्ध होता है, यह वैशेषिक भी मानता है।
अकलंकदेव के अनुसार वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। इसे वे वैशेषिक में भी घटित करते हैं । वैशेषिक पृथिवीत्व आदि सामान्य-विशेष स्वीकार करते हैं । एक ही पृथिवीत्व स्व-व्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने का कारण होने से विशेष कहलाता है। इस प्रकार एक ही वस्तु में सामान्य-विशेषात्मक स्वीकार करनेवाले वैशेषिक सिद्धान्त में भी एक वस्तु के उभयात्मक मानने में विरोध नहीं आता।