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________________ 64 जैनविद्या - 20-21 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' जैसी प्रौढ़ और गहन तत्वज्ञान से ओत-प्रोत अनेक टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के जोड़ की टीकाएँ नहीं मिलती हैं, यद्यपि संख्या की दृष्टि से अनेक टीकाएँ प्राप्त हैं। समकालीन या परवर्ती समस्त टीकाएँ इन टीकाग्रन्थों से प्रभावित हैं । प्रस्तुत लेख का प्रतिपाद्य 'तत्त्वार्थवार्तिक' ही है। तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र पर अकलंकदेव द्वारा अतिगहन, प्रखर दार्शनिकता और प्रौढ़ शैली में लिखी गई कति है। इसे 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' अथवा 'राजवार्तिक' के नाम से भी जाना जाता है। वार्तिककार अकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि का अनसरण करने के साथ-साथ उसकी अधिकांश पंक्तियों को अपनी वार्तिक बना लिया है। वार्तिक के साथ उसकी व्याख्या भी है। चूँकि तत्त्वार्थसूत्र में दस अध्याय हैं, अतः तत्त्वार्थवार्तिक में भी दस ही अध्याय हैं, किन्तु उद्योत करके न्यायवार्तिक की तरह प्रत्येक अध्याय को आह्निकों में विभक्त कर दिया गया है। इससे पहले जैन साहित्य में अध्याय के आह्निकों में विभाजन करने की पद्धति नहीं पाई जाती। अकलंकदेव द्वारा तत्त्वार्थवार्तिक में दिये गये वार्तिक प्रायः सरल और संक्षिप्त हैं, किन्तु उनका व्याख्यान जटिल है। इस ग्रन्थ में भट्ट अकलंकदेव के दार्शनिक, सैद्धान्तिक और वैयाकरण तीन रूप उपलब्ध होते हैं। दार्शनिक वैशिष्टय - तत्त्वार्थवार्तिक के अध्ययन से यह बात स्पष्ट पता चलती है कि इसके रचनाकार भट्ट अकलंकदेव विभिन्न भारतीय दर्शनों के तलस्पर्शी अध्येता थे। उन्होंने विभिन्न दर्शनों के मन्तव्यों की समीक्षा कर अनेकान्तिक पद्धति से समाधान करने की परम्परा को विकसित किया। उनका वाङ्गमय गहन है। विद्वान् भी उसका विवेचन करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। उनके विषय में वादिराज सूरि ने कहा है - भूयोभेदनयावगाहगहनं देवस्य यदवाङ्गमयम्। कस्यद्विस्तरतो विविच्य वदितुं मन्दः प्रभुर्मादृशः॥ अर्थात् - अकलंकदेव की वाणी अनेक भङ्ग और नयों से व्याप्त होने के कारण अतिगहन है। मेरे समान अल्पज्ञ प्राणी उनका विस्तार से कथन और वह भी विवेचनात्मक कैसे कर सकता है। तत्त्वार्थवार्तिक में न्याय-वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, मीमांसा तथा चार्वाक मतों की समीक्षा प्राप्त होती है। इसमें न्याय, वैशेषिक और बौद्धदर्शन की समीक्षा अनेक स्थलों पर की गई है। अकलंकदेव का उद्देश्य इन दर्शनों की समीक्षा के साथ-साथ इनके प्रहारों से जैन तत्वज्ञान की रक्षा करना भी रहा है। इसमें वे पर्याप्त सफल भी हुए हैं। उन्होंने जैन न्याय की ऐसी शैली को जन्म दिया, जिसके प्रति बहुमान रखने के कारण परवर्ती जैन ग्रन्थकार इसको 'अकलंक-न्याय' के नाम से अभिहित करते हैं । उनकी शैली को परवर्ती जैन न्याय ग्रन्थकारों ने, चाहे वे दिगम्बर परम्परा के रहे हों या श्वेताम्बर परम्परा के, खूब अपनाया। इस रूप में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन के बाद जैन न्याय के क्षेत्र में उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है । यहाँ हम उनके द्वारा की गई विभिन्न दर्शनों की समीक्षा पर प्रकाश डालते हैं।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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