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________________ जैनविद्या - 20-21 अप्रेल - 1999-2000 अकलंकदेव की कृति तत्त्वार्थवार्तिक - डॉ. रमेशचन्द जैन जैनागमों की मूलभाषा प्राकृत रही है। संस्कृत में सर्वप्रथम जैन रचना होने का श्रेय गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को है । तत्त्वार्थसूत्र सूत्र-शैली में लिखा गया है। सूत्ररूप में ग्रथित इस ग्रन्थ में जैन तत्त्वज्ञान का सागर भरा हुआ है । लघुकाय सूत्रग्रन्थ होने पर भी यह 'गागर में सागर' भरे जाने की उक्ति को चरितार्थ करता है। यही कारण है कि जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में यह मान्य है। इस सूत्रग्रन्थ का मुख्य नाम 'तत्त्वार्थ' है। इस नाम का उल्लेख टीकाकारों ने किया है, जिनमें आचार्य पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्द प्रमुख हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ हैं। इन्हीं सात तत्त्वार्थों का तत्त्वार्थसूत्र में विवेचन है । ग्रन्थ की महत्ता को देखते हुए इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गयीं। दिगम्बर परम्परा में इस पर सबसे प्राचीन टीका आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि कृत 'सर्वार्थसिद्धि' प्राप्त होती है । यद्यपि सर्वार्थसिद्धि में कुछ प्रमाण ऐसे हैं जिनसे पता चलता है कि इससे पूर्व भी कुछ टीकाएँ लिखी गई थीं जो आज अनुपलब्ध हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इस पर 'तत्त्वार्थाधिगम भाष्य' प्राप्त होता है, जो स्वोपज्ञ कहा जाता है। किन्तु इसके स्वोपज्ञ होने में विद्वानों ने सन्देह व्यक्त किया है। सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थसूत्र का जो पाठ निर्धारित किया है, दिगम्बर परम्परा के सभी विद्वान् आचार्यों ने उसका अनुसरण किया है। सर्वार्थसिद्धि को ही दृष्टि में रखते हुए उस पर भट्ट अकलंकदेव ने 'तत्त्वार्थवार्तिक' और आचार्य विद्यानन्द ने
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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