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________________ जैनविद्या - 20-21 ___आचार्य अकलंकदेव ने उक्त तीनों नयों का एक ही कारिका में उपसमाहार करते हुए लिखा है कालकारकलिङ्गानां भेदाच्छब्दोऽर्थभेदकृत्। अभिरूढस्तु पर्यायैरित्थम्भूतः क्रियाश्रयः॥15॥ (नयप्रवेश) इस प्रकार, आचार्य अकलंकदेव ने उपरिविवेचित सातों नयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता को लक्ष्य किया है। नैगमनय संकल्पग्राही है, तो संग्रहनय सन्मात्रग्राही। अर्थात्, नैगमनय सत्-असत् दोनों पक्षों को ग्रहण करता है, तो संग्रहनय केवल सत्पक्ष को। और फिर, सद्विशेष को ग्रहण करने के कारण व्यवहारनय संग्रहनय से भी सूक्ष्म है। त्रिकालात्मक सद्विशेष को ग्रहण करने के कारण ऋजुसूत्रनय व्यवहारनय से भी सूक्ष्म है। शब्द-भेद होने पर भी अभिन्नार्थग्राही ऋजुसूत्र से काल, कारक आदि के भेद से शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थ ग्रहण करने वाला शब्दनय सूक्ष्मतर है। पर्याय भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ ग्रहण करनेवाले शब्दनय से, पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थभेद ग्रहण करने के कारण समभिरूढनय शब्दनय से सूक्ष्मतर और अल्पविषयी है। क्रियाभेद से अर्थभेद नहीं माननेवाले समभिरूढनय से क्रियाभेद की स्थिति में अर्थभेद माननेवाला एवम्भूतनय ततोऽधिक सूक्ष्म और अल्पविषयी होता है। ___ अन्त में, निष्कर्ष रूप में अकलंकदेव ने कहा है कि ये सातों नय परस्पर सूक्ष्म भेदयुक्त होने पर भी विधि और प्रतिषेध द्वारा सम्यक् अर्थ की अभिव्यक्ति की दृष्टि से अनेकान्तात्मक हैं । मूल कारिका इस प्रकार है कालादिलक्षणं न्यक्षेणान्यत्रेक्ष्यं परीक्षितम्। द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेषात्मार्थ निष्ठितम्॥18॥ (नयप्रवेश) नय प्रमाण नहीं है, पर प्रमाण के समीपी है। नय विकलादेशी होता है और प्रमाण . सकलादेशी। विकलादेश में धर्मवाचक शब्द के साथ 'एव' का प्रयोग होता है और सकलादेश । में धर्मिवाचक शब्द के साथ। उदाहरणार्थ 'स्याज्जीव एव' ऐसा प्रयोग अनन्तधर्मात्मक जीव की समग्रता या अखण्डरूपता का बोधक है, अतएव यह सकलादेशात्मक प्रमाणवाक्य है। किन्तु 'स्यादस्त्येव जीवः' इस वाक्य में मुख्यतः जीव के अस्तित्वधर्म का कथन किया गया है। अतः यह विकलादेशात्मक नयवाक्य है। अकलंकदेव ने भी लिखा है उपयोगोश्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ। स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकल सङ्कथा॥62॥ (प्रवचनप्रवेश) कहना न होगा कि विभिन्न जैन चिन्तकों ने विभिन्न पद्धतियों से नयविषयक अपने विचार व्यक्त किये हैं, किन्तु सबकी केन्द्रीय भावचेतना एक ही है। 1. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, खण्ड-2, पृष्ठ 304 2. लघीयस्त्रय के अन्तर्गत नयप्रवेश की कारिका 1 की वृत्ति, अकलंकदेव भिखना पहाड़ी पी.एन. सिन्हा कॉलोनी, पटना - 800006
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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