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जैनविद्या - 20-21 अविसंवादी होने के कारण प्रमाण हैं और पूर्वापर-विरोधी न होने के कारण सद्-व्यवहार के विषय हैं । प्रमाणविरुद्ध कल्पनाएँ व्यवहारनयाभास हैं, जैसे सौत्रान्तिक का एकान्त-रूप से जड़चेतन सभी पदार्थों को क्षणिक, निरंश और परमाणु-रूप मानना, योगाचार का क्षणिक अविभागी और विज्ञानाद्वैत मानना या फिर माध्यमिकों का सर्वशून्यता स्वीकार करना। ये सब व्यवहाराभास, प्रमाणविरोधी तथा लोक-व्यवहार में विसंवादी हैं।
ऋजुसूत्रनय में भेद का महत्त्व अवश्य है, पर अभेद का प्रतिक्षेप नहीं है। अभेद का प्रतिक्षेप होने पर ऋजुसूत्रनय बौद्धों के क्षणिक तत्त्व की तरह ऋजुसूत्रनयाभास हो जायेगा। ऋजुसूत्रनय पदार्थ के एक क्षणरूप शुद्ध वर्तमानकालवर्ती अर्थ-पर्याय को मूल्य देता है। इस नय की दृष्टि से अभेद कोई वास्तविक नहीं, प्रातिभासिक है। चित्रज्ञान भी एक न होकर अनेक ज्ञानों का समूह है। इसी तत्त्व को अकलंकदेव ने अपनी भाष्यगर्भ कारिका में इस प्रकार समेटा है
ऋजुसूत्रस्य पर्यायः प्रधानं चित्रसंविदः।
चेतनाणुसमूहत्वात् स्याभेदानुपलक्षणम्॥14॥ (नयप्रवेश) शब्दनय काल, कारक, लिंग तथा संख्या के भेद से शब्द की भिन्नता द्वारा भिन्न अर्थों को ग्रहण करता है । भिन्न काल, भिन्न कारक, भिन्न लिंग तथा भिन्न संख्यावाले शब्द एक अर्थ के वाचक नहीं हो सकते।शब्दनय की दृष्टि से भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल, एकवचन, द्विवचन
और बहुवचनान्त कारक, स्त्री, पुरुष और नपुंसकलिंग एवं एक, दो और तीन संख्याएँ भिन्नभिन्न अर्थ के वाचक हैं । शब्दभेद से अर्थभेद होना आवश्यक है। काल, कारक आदि के भेद से एक ही द्रव्य के अनेक पर्याय हो सकते हैं । इसलिए उक्तविध ये समस्त भेद एकान्तात्मक नहीं हो सकते। इस प्रकार, काल आदि के भेद से अर्थभेद की स्थिति में शब्दनय उनमें विभिन्न शब्दों का प्रयोग अपेक्षित मानता है। शब्दभेद होने पर अर्थभेद न मानना शब्दनयाभास है।
समभिरूढनय प्रत्येक पर्यायवाची शब्दों के द्वारा अर्थ में भेद स्वीकार करता है। एक काल, एक लिंग और एक संख्या के शब्द अनेक पर्यायवाची हो सकते हैं। जैसे एक लिंगवाले 'इन्द्र' 'शक' और 'पुरन्दर' ये तीन शब्द प्रवृत्तिनिमित्तक भिन्नता के कारण भिन्नार्थवाचक हैं । इन्द्र' से इन्दन या आनन्दन की क्रिया, 'शक' शब्द से शासन-क्रिया और 'पुरन्दर' शब्द से पुर के विदारण की क्रिया का बोध होता है। अत: तीनों शब्द विभिन्न स्थितियों के वाचक हैं । शब्दनय में एकलिंगात्मक पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद नहीं था, परन्तु समभिरूढनय में विभिन्न प्रवृत्तिनिमित्त होने से एकलिंगात्मक पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थभेद अनिवार्य है। पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद की स्थिति होने पर भी अर्थभेद न मानना समभिरूढनयाभास है।
एवम्भूतनय क्रिया के भेद से अर्थभेद स्वीकार करता है । जैसे–'इन्द्र' जब इन्दन-क्रिया कर रहा हो, तब उसे 'इन्द्र' कहा जायगा, दूसरे समय में नहीं। यह नय क्रिया की विद्यमानता में ही उस क्रिया से निष्पन्न शब्द के प्रयोग को साधु मानता है। इस नय की दृष्टि से, कार्य करने की स्थिति में ही कारक' कहा जायेगा और कार्य न करनेकी स्थिति में कारक' शब्द असार्थक होगा। क्रियाभेद होने की स्थिति में भी अर्थभेद न मानना एवम्भूतनयाभास है।