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________________ 58. जैनविद्या - 20-21 उपरिवर्णित साक्ष्यों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि आचार्य अकलंकदेव की जन्मभूमि दक्षिण के राष्ट्रकूटवंशीय राजाओं की राजधानी मान्यखेट रही है। वे वहाँ के राजा शुभतुंग के राजनयज्ञ मन्त्री पुरुषोत्तम के ज्येष्ठ पुत्र थे। 'राजावलिकथे' के अनुसार अकलंकदेव कांची के जिनदास ब्राह्मण के पुत्र थे और उनकी माता का नाम जिनमती था। राजावलिकथे' में अकलंकदेव की जीवन-कथा के सन्दर्भ में एक मनोरंजक प्रसंग प्राप्य है-कांची के बौद्ध विद्वानों ने पल्लववंशीय कलिंगनरेश हिमशीतल की राजसभा में जैन विद्वानों से इस बात पर शास्त्रार्थ किया था कि पराजित होने पर सभी जैन शास्त्रार्थी कोल्हू में पेरवा दिये जायेंगे। वह शास्त्रार्थ सत्रह दिनों तक चला था । अकलंक को कूष्माण्डिनी देवी ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा था कि तुम अपने प्रश्नों को सीधे न रखकर प्रकारान्तर से उपस्थित करने पर शास्त्रार्थजयी हो सकोगे। अकलंक ने वैसा ही किया और वह शास्त्रार्थ में विजयी हए। बौद्धविद्वान कलिंग से सिंहल चले गये। इस कथा प्रसंग से जाहिर है कि समन्तभद्र की तरह अकलंकदेव भी दिग्विजयी शास्त्रार्थी पण्डित थे। 'मल्लिषेणप्रशस्ति' के दूसरे पद्य के अनुसार राष्ट्रकूटनरेश साहसतुंग की राजसभा में अकलंकदेव ने बौद्ध विद्वानों को उसी प्रकार परास्त किया, जिस प्रकार राजा हिमशीतल की राजसभा में किया था। इसीलिए उनके समकालीन आचार्य और 'अष्टसहस्री', जो अपनी दुरूहता के लिए 'कष्टसहस्री' के नाम से विख्यात है, के प्रसिद्ध टीकाकार विद्यानन्दजी ने उन्हें सकलतार्किकचक्रचूड़ामणि की पदवी से अलंकृत किया था।' आचार्य अकलंकदेव की चार मौलिक कृतियाँ और दो टीकाग्रन्थ हैं । उस समय के टीकाकार जो टीकाएँ लिखते थे, वे मौलिक ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित होती थीं। इसलिए, उन्हें 'टीकाग्रन्थ' कहा गया है। आज प्रायः मूलग्रन्थ के दुखबोध हो जाने के कारण टीकाग्रन्थ लिखने की परम्परा ही समाप्त हो गई है। अकलंकदेव की मौलिक कृतियाँ हैं -स्वोपज्ञवृत्ति-सहित ‘लघीयस्त्रय', वृत्ति-सहित 'न्यायविनिश्चय', वृत्ति-सहित 'सिद्धिविनिश्चय' और वृत्ति-सहित 'प्रमाणसंग्रह'। . टीकाग्रन्थ हैं-'तत्त्वार्थवार्तिक' (सभाष्य) और अष्टशती (देवागम विवृत्ति)। उक्त मौलिक ग्रन्थों में लघीयस्त्रय' का नाम सर्वप्रथम है । यह अकलंकदेव की सातिशय प्रौढ़ कृति है । इसके तीन छोटे-छोटे प्रकरण हैं-प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और निक्षेपप्रवेश या प्रवचनप्रवेश। प्रस्तुत आलेख में 'नयप्रवेश' को अधिकृत कर अकलंकदेव के नय-विवेचन का संक्षिप्त आकलन उपन्यस्त है। 'प्रवेश' शब्द से स्पष्ट है कि अकलंकदेव प्रबुद्ध पाठकों को प्रमाण, नय और प्रवचन का सामान्य परिचय देना चाहते हैं और इन तीनों का विषयवस्तु में उन पाठकों का प्रवेश कराना चाहते हैं । स्वीकृत विषय के पल्लवन के लिए अकलंक ने इन तीनों प्रवेशों या प्रकरणों को छह परिच्छेदों के रूप में रखा है। 'प्रमाणप्रवेश' के चार परिच्छेद हैं - प्रत्यक्षपरिच्छेद, विषयपरिच्छेद, परोक्षपरिच्छेद तथा आगमपरिच्छेद। इन चार परिच्छेदों के साथ 'नयप्रवेश' और 'प्रवचनप्रवेश' को मिलाकर कुल छह परिच्छेद ‘लघीयस्त्रय' की स्वोपज्ञवृत्ति में हैं, जिनमें कुल अठहत्तर कारिकाएँ हैं । पंचम परिच्छेद के रूप में उपस्थापित 'नयप्रवेश' में केवल इक्कीस कारिकाएँ हैं। अतिलघु, यानी बहुत छोटे तीन प्रवेशों से समन्वित होने के कारण ही इस ग्रन्थ की 'लघीयस्त्रय' संज्ञा सार्थक है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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