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जैनविद्या - 20-21
अप्रेल - 1999-2000
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आचार्य अकलंकदेव और उनका नय-विवेचन
- विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव
शास्त्रार्थकुशल आचार्य अकलंकदेव जैन न्याय-दर्शन के अगड़धत्त पण्डितों में पांक्तेय थे। उनकी परिगणना ईसा की सातवीं-आठवीं शती के युगप्रधान सारस्वताचार्यों में होती है। श्रवणबेलगोला के अभिलेख (सं. 47) के अनुसार वह षड्दर्शन और तर्कशास्त्र या न्यायविद्या में बृहस्पतिकल्प थे। बौद्ध आदि एकान्तवादियों को परास्त करना ही उनकी शास्त्र-रचना का मुख्य लक्ष्य था। उन्होंने दिग्विजयी शास्त्रार्थी और प्रखर तार्किक आचार्य समन्तभद्र (ईसा की द्वितीय शती) की शास्त्रार्थ-परम्परा को ततोऽधिक समृद्ध किया था। वे जैनन्याय के समानान्तर बौद्धन्याय के भी पारगामी विद्वान् थे। ___आचार्य अकलंकदेव की जीवन-कथा विभिन्न जैनकथा-ग्रन्थों, प्रशस्तियों और अभिलेखों में सुरक्षित है। इनमें प्रभाचन्द्र (ईसा की ग्यारहवीं शती) का 'गद्यकथाकोष', ब्रह्मनेमिदत्त (विक्रम की सोलहवीं शती) का आराधनाकथाकोष' एवं देवचन्द्र (विक्रम की सोलहवीं शती) का कन्नड़-भाषा में लिखित कथा-ग्रन्थ 'राजावलिकथे' विशेष उल्लेख्य हैं, साथ ही 'मल्लेिषणप्रशस्ति' (ग्यारहवीं शती) और 'श्रवणबेलगोला-अभिलेख' का अकलंकदेव के प्रामाणिक जीवन-परिचय की दृष्टि से ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक महत्त्व है। इन सब साक्ष्यों का समेकित अध्ययन आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्रीजी की ऐतिहासिक मूल्य की कृति 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा' में सुलभ है । और फिर, अकलंक के प्रखर व्यक्तित्व और मुखर कृतित्व के व्यापक शास्त्रीय परिचय की दृष्टि से सिंघी जैनग्रन्थमाला में प्रकाशित 'अकलंक-ग्रन्थत्रयम्' की न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा लिखित ग्रन्थोपम ‘प्रस्तावना' अध्येतव्य है । यह आलेख इसी प्रस्तावना पर उपजीवित है।