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जैनविद्या - 20-21
अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं - एक आधार में विरोधी अनेक धर्मों का रहना असंभव है, अत: अनेकान्तवाद संशय का हेतु है क्योंकि आगम में लिखा है कि द्रव्य एक है, पर्यायें अनन्त हैं । आगम प्रमाण से वस्तु अस्ति है कि नास्ति है? नित्य है कि अनित्य है? इत्यादि प्रकार से संशय होता है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि विशेष लक्षण की उपलब्धि होती है। सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर (किन्तु) उभय विशेषों का स्मरण होने से संशय होता है। जैसे धुंधली (न अति प्रकाश है न अधिक अंधेरा) ऐसी रात्रि में स्थाणु
और पुरुषगत ऊँचाई आदि सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षि निवास और पुरुषगत सिर खुजलाना, चोटी बांधना, वस्त्र हिलाना आदि विशेष धर्मों के न दिखने पर किन्तु इन विशेषों का स्मरण रहने पर (ज्ञान दो कोटियों में दोषित हो जाता है कि यह स्थाणु है या कुरूप) संशय उत्पन्न हो जाता है किन्तु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है क्योंकि स्वरूपादि के आदेश से वशीकृत उक्त विशेष प्रत्यक्ष उपलब्ध होते हैं । अतः विशेष की उपलब्धि होने से अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं है । सब धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित . अपेक्षाओं से स्वीकृत है। ततद् धर्मों का विशेष प्रतिभास निर्विवाद सापेक्ष रीति से बताया गया है। अनेकान्तवाद को संशय का आधार भी कहना उचित नहीं है क्योंकि अस्ति आदि धर्मों को पृथक्-पृथक् सिद्ध करनेवाले हेतु हैं या नहीं? यदि हेतु नहीं हैं तो प्रतिपादन कैसा? यदि हेतु हैं तो एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों की सिद्धि होने पर संशय होना ही चाहिए। विरोध के अभाव में संशय का अभाव होता है। यदि विरोध होगा तो संशय अवश्य होगा परन्तु नयों के माध्यम से कथित धर्मों में विरोध नहीं होता। ___ इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव ने अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठापना में महनीय योगदान दिया। अनेकान्त व्यवस्था के प्रतिपादन में संक्षेप में निम्न बिन्दु ध्यातव्य हैं1. कर्ता और करण के भेदाभेद की चर्चा । 2. आत्मा का ज्ञान से भिन्नाभिन्नत्व। 3. मुख्य और अमुख्यों का विवेचन करते हुए अनेकान्त दृष्टि का समर्थन। 4. सप्तभंगी के निरूपण के पश्चात् अनेकान्त में अनेकान्त की योजना। 5. अनेकान्त में प्रतिपादित छल, संशय आदि दोषों का निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मकता
की सिद्धि। 6. नयों का सोपपत्तिक निरूपण। 7. वस्तु व्यवस्था में अनेकान्त की आवश्यकता। 8. प्रमाणसप्तभंगी एवं नयसप्तभंगी का सम्यक् प्रतिपादन। 9. वस्तु की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता का तार्किक विश्लेषण।
आचार्य अकलंक ने अपने विलक्षण तर्ककौशल से सर्वत्र अनेकान्तवाद का साम्राज्य स्थापित कर जिनशासन की प्रभावना में विलक्षण कुशलता का परिचय दिया है। हमें उनके ग्रंथों का गहनता से अध्ययन कर तत्त्व-व्यवस्था को भली प्रकार से समझकर आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर होना चाहिए।