SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 54 जैनविद्या - 20-21 प्रमाण और नयापेक्षा अनेकान्त-एकान्त व्यवस्था - तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्न उपस्थित करते हुए लिखा है कि अनेकान्त में भी विधि-प्रतिषेध की कल्पना नहीं है। यदि अनेकान्त में यह विधि-प्रतिषेध कल्पना लगती है तो वह अनेकान्त नहीं हो सकता है। क्योंकि जिस समय अनेकान्त में 'नास्ति' भंग प्रयुक्त होता है, उस समय एकान्तवाद का प्रसंग आ जायेगा और अनेकान्त में भी अनेकान्त लगाने पर अनवस्था दूषण आता है, अत: अनेकान्त को अनेकान्त ही कहना चाहिए। इसलिए सप्तभंगी भी व्याप्तवान नहीं है। इसका समाधान देते हुए लिखा है कि ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि अनेकान्त में भी 'स्याद् एकान्त, स्याद् अनेकान्त, स्याद् उभय, स्याद् अवक्तव्य, स्याद् एकान्त अवक्तव्य, स्याद् अनेकान्त अवक्तव्य, स्याद् उभय अवक्तव्य' इस प्रकार प्रमाण और नय की दृष्टि से अनेकान्त रूप से अनेकमुखी कल्पनायें हो सकती हैं अर्थात् प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त है और नय की अपेक्षा एकान्त है। ___प्रमाण और नय की विवक्षा से भेद है । एकान्त दो प्रकार का है सम्यग् और मिथ्या। अनेकान्त भी सम्यग् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त के भेद से दो प्रकार का है। प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एकदेश की हेतु विशेष के सामर्थ्य की अपेक्षा से ग्रहण करनेवाला सम्यग् एकान्त है। एक धर्म का सर्वथा (एकान्त रूप से) अवधारण करने अन्य धर्मों का निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है । एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करनेवाला सम्यक अनेकान्त है तथा वस्त को तत अतत आदि स्वभाव से शन्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करनेवाला अर्थ शून्यवान विलास मिथ्या अनेकान्त है। एक धर्म का निश्चय करने में प्रवीण होने से नय की विवक्षा से एकान्त है। अनेक धर्मों के निश्चय का अधिकरण (आधार) होने के कारण प्रमाण विवक्षा से अनेकान्त है । यदि अनेकान्त अनेकान्त ही माना जाये और एकान्त का लोप किया जाये तो सम्यक् एकान्त के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदायरूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा। यदि एकान्त ही माना जाये तो उसके अविनाभावी शेष धर्मों का निराकरण हो जाने से प्रकृत शेष का भी लोप हो जाने से सर्वलोप का प्रसंग प्राप्त होता है। अनेकान्त में छल का अभाव है - आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि अनेकान्त छलमात्र है ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि छल के लक्षण का अनेकान्त में अभाव है। जो अस्ति है वही नास्ति है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार अनेकान्त की प्ररूपणा छलमात्र है ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि छल के लक्षण का अनेकान्त में अभाव है। छल का लक्षण है 'वचन विधातोऽर्थ विकल्पोपपत्या छलम्' अर्थात् अर्थों के विकल्प की उपपत्ति से वचनों का विधान। जैसे- 'नवकम्बलोइयं देवदतः' यहाँ नव शब्द के दो अर्थ हैं एक 9 संख्या और दूसरा नया । यहाँ 'नूतन' विवक्षा से कहे गये 'नव' शब्द का 9 संख्या रूप अर्थ विकल्प करके वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना छल कही जाती है जैसे इसके नव कम्बल हैं, इस कथन में वक्ता का अभिप्राय था इसके पास नौ कम्बल हैं चार, पांच नहीं। श्रोता ने इसका अर्थ लिया इसका कम्बल नया कम्बल है पुराना नहीं। किन्तु सुनिश्चित उभय नय के वश के कारण मुख्य गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीतरूप से प्रतिपादन करनेवाला अनेकान्तवाद छल नहीं हो सकता क्योंकि इसमें वचन-विघात नहीं किया गया है, अपितु यथावस्थित वस्तु तत्त्व का निरूपण किया गया है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy