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________________ जैनविद्या - 20-21 परस्पर विरोध प्रतीत होते हुए भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीनों के युगपत् होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि जिस दृष्टि से उत्पाद और व्यय की कल्पना करते हैं, यदि उसी दृष्टि से ध्रौव्य नित्य कहा जाता है तो अवश्य विरोध आता है जैसे कि एक ही अपेक्षा किसी पुरुष को पिता और पुत्र कहते हैं परन्तु धर्मान्तर का आश्रय लेकर कहने में कोई विरोध नहीं है । जैसे एक ही पुरुष को पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्र की अपेक्षा पिता कहा जाय तो कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य को अनित्य कहने में कोई विरोध नहीं है। अतः दोनों की अपेक्षा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों एकसाथ घटित हो जाते हैं। 14 53 द्रव्य और पर्याय का अविनाभाव - आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है कि गौण और मुख्य की विवक्षा से एक ही वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म सिद्ध हैं। 15 आचार्य अकलंकदेव ने अर्पित को परिभाषित करते हुए लिखा- 'धर्मान्तर विवक्षाप्रापितप्राधान्यमर्पितम्' अर्थात् धर्मान्तर की विवक्षा से प्राप्त प्राधान्य अर्पित कहलाता है । अनेक धर्मात्मक वस्तु के प्रयोजन वश जिस धर्म की विवक्षा की जाती है वा विवक्षित जिस धर्म को प्रधानता मिलती है, उस अर्थ रूप को अर्पित कहते हैं । अर्पित से विपरीत अनर्पित है। प्रयोजन का (वक्ता की इच्छा का) अभाव होने से सत् (विद्यमान) पदार्थ की अविवक्षा हो जाती है, अत: उपसर्जनीभूत ( गौण) पदार्थ अनर्पित (अविवक्षित) कहलाता है। अर्पित और अनर्पित अर्पितानर्पित है अर्थात् अनर्पित के द्वारा वस्तु सिद्धि होती है । अत: सत् पदार्थ का नित्यत्व अर्पित-अनर्पित से सिद्ध है। जैसे जब 'मृत्पिण्डरूपी द्रव्य' के रूप में अर्पित होता है तब वह नित्य है क्योंकि वह मृत्पिण्ड कभी भी रूपित्व वा द्रव्यत्व को नहीं छोड़ता है। जब वही अनेक धर्मरूप से परिणमन करनेवाले इस मृत्पिण्ड धर्मान्तर की विवक्षा से मृत्पिण्ड के रूपित्व और द्रव्यत्व को गौण करके केवल 'मृत्पिण्ड' रूप पर्याय की विवक्षा करते हैं तो वह मिट्टी का पिण्डरूप पुद्गल द्रव्य अनित्य है क्योंकि उसकी वह पर्याय (पिण्ड पर्याय) अध्रुव है, अनित्य है । यदि केवल द्रव्यार्थिक नय की विषयभूत वस्तु मानी जाये तो व्यवहार का लोप हो जायेगा क्योंकि पर्यायशून्य केवल द्रव्यरूप वस्तु का अभाव है। यदि केवल वस्तु पर्यायार्थिक नय के गोचर ही मानी जाय तो लोकयात्रा सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि द्रव्य से रहित पर्याय मात्र वस्तु का अभाव है, उभयात्मक वस्तु ही लोकयात्रा कराने में समर्थ है। अत: उभयात्मक वस्तु की प्रसिद्धि है । " अन्वय और व्यतिरेक रूप से पदार्थ की अनेक धर्मात्मकता - अन्वय और व्यतिरेक रूप होने से भी पदार्थ अनेक धर्मात्मक है। जैसे इस लोक में एक ही घड़ा सत् अचेतन आदि सामान्य रूप से अन्वय धर्म का तथा नूतन - पुरातन आदि विशेष रूप से व्यतिरेक धर्म का आधार होने से अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है उसी प्रकार अन्वय व्यतिरेक रूप समान्य और विशेष धर्मों का आधारभूत आत्मा एक होता हुआ भी अनेक धर्मात्मक है। 7
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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