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________________ 52 जैनविद्या - 20-21 उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मकता से पदार्थ की अनेक धर्मात्मकता - जैनदर्शन में द्रव्य का लक्षण सत् कहा गया है और वह सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। इस कारण से भी पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है। अनंत काल और एक काल में अनंत प्रकार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण आत्मा अनेकान्तरूप है । जैसे घट एक ही काल में द्रव्य दृष्टि से पार्थिव (मिट्टी) रूप से उत्पन्न होता है, जलरूप से नहीं; देश की अपेक्षा यहाँ उत्पन्न होता है, पटना आदि में नहीं; काल की विवक्षा से वर्तमान काल में उत्पन्न होता है, अतीत अनागत काल में नहीं; भाव-दृष्टि से बड़ा उत्पन्न होता है, छोटा नहीं। द्रव्यादि के एक-एक का यह उत्पाद सजातीय मिट्टी के अनेक अन्य घटान्तर्गत, सुवर्ण आदि ईषद् विजातीय घटान्तर्गत और अत्यन्त विजातीय पट (वस्त्र) आदि अनन्तान्त मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्यान्तर्गत उत्पाद से भेदरूप होते हुए उत्पाद उतने ही भेदों को प्राप्त हो जाता है अर्थात् मिट्टी से घट का उत्पाद, स्वर्ण से घट का उत्पाद आदि में भेद से उत्पाद अनेक प्रकार का हो जाता है । यदि उत्पाद में भेद नहीं माना जायेगा तो सर्व घटों के साथ अविशेषता (अभिन्नता) आ जायेगी। सर्व एकता को प्राप्त हो जायेंगे। इसी प्रकार वही द्रव्य (घट) उस समय अनुत्पद्यमान (उत्पन्न नहीं होनेवाले) द्रव्य के सम्बन्ध से कृत, ऊपर, नीचे, तिरछे, अन्तरित, अनन्तरित, एकान्तरादि दिशाओं के भेद से महान अल्प आदि गुण भेद से, रूपादि के उत्कर्ष, अपकर्ष आदि अनन्त भेद से और त्रिलोक एवं त्रिकाल विषय सम्बन्धी भेद से विद्यमान (भेद को प्राप्त होनेवाला) उत्पाद अनेक प्रकार का है तथा अनेक अवयवात्मक स्कन्ध प्रदेश भेद, दृष्ट, विषय, उत्पाद की नानारूपता होने से ही उत्पाद अनेक प्रकार का है अथवा जलधारण, आहरण, प्रदानाधिकरण, भय, हर्ष, शोक, परिताप जननादि स्वकार्य के प्रसाधन के निमित्त से उत्पाद अनेक प्रकार का है। जैसे उत्पाद अनेक प्रकार का है उसी प्रकार उत्पाद का प्रतिपक्षी विनाश भी उतने ही प्रकार का है क्योंकि पूर्व पर्याय का विनाश हुए बिना नूतन उत्पाद की संभावना नहीं है । उत्पाद और विनाश की प्रतिपक्षीभूत स्थिति भी उतने ही प्रकार की है क्योंकि उत्पत्ति और विनाश की आधारभूत स्थिति के बिना बन्ध्या के पुत्र के समान उत्पाद और विनाश के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् स्थिति के बिना उत्पाद और विनाश नहीं हो सकता। जब घट उत्पन्न होता है। इस प्रयोग को वर्तमान काल तो इसलिए नहीं मान सकते कि अभी तक घड़ा उत्पन्न ही नहीं हुआ है अर्थात् पूर्वापरीभूत साध्यमान भाव के अभिधान का वर्तमान में असत्व है। उत्पत्ति के अनन्तर यदि शीघ्र ही विनाश मान लिया जाये तो सद्भाव की अवस्था का प्रतिपादक कोई शब्द ही प्रयुक्त नहीं होगा तथा प्रतिपादक शब्द का अभाव होने से उत्पाद में भी अभाव हो जायेगा और विनाश में भी अभाव हो जायेगा और भावाभाव (अस्तिनास्ति) रूप पदार्थ का विनाश हो जाने पर तदाश्रित व्यवहार का भी लोप हो जायेगा तथा बीज शक्ति का अभाव होने से उत्पाद और विनाश शब्द वाच्यता का भी अभाव हो जायेगा। अतः पदार्थ में उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थायें अवश्य स्वीकार करनी चाहिए तथा एक जीव में भी द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय के गोचर सामान्य विशेष अनन्त शक्तियाँ और उत्पत्ति, विनाश, स्थिति आदि रूप होने से अनेकान्तात्मकता समझनी चाहिए।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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