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________________ जैनविद्या - 20-21 ___ आत्मा अनेक शक्तियों का आधार होने से भी अनेक धर्मात्मक है । जैसे घी चिकना है, तृप्ति करता है और उपवृंहण करता है अत: अनेक शक्तिवाला है, अथवा जैसे घड़ा जल धारण, आहरण आदि अनेक शक्तियों से युक्त है उसी प्रकार आत्मा भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित से अनेक प्रकार की विकार प्राप्ति के योग्य वैभाविक शक्तियों के योग से अनेक धर्मात्मक है। सम्बन्धि रूपत्व होने से अनेक धर्मात्मकता - वस्तु अन्तर सम्बन्ध से आविर्भूत अनेक सम्बन्धि रूपत्व होने से भी अनेक धर्मात्मक है। जैसे एक ही घट अनेक सम्बन्धियों की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम, अन्तरित-अनन्तरित, दूर-आसन्न, नवीन-पुराना, समर्थ-असमर्थ, देवदत्तकृत, चैत्रस्वामिकत्व, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग आदि भेद से अनेक व्यवहारों का विषय होता है क्योंकि सम्बन्धों की अनन्तता से सम्बन्धी भी अनंत होते हैं, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त सम्बन्धियों की अपेक्षा आत्मा भी उन-उन अनेक पर्यायों को धारण करनेवाला होने से, अनेक धर्मात्मक है। अथवा पुद्गलों के अनन्तता है और उस-उस पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से एक-एक पुद्गलस्थ एक-एक पर्याय की विवक्षा से अनन्तता होती है जैसे एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनन्त पुद्गलों की अपेक्षा अनेक भेदों को धारण करती है। प्रदेशिनी अंगुली में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पररूप का भेद पृथक्-पृथक् है । अतः मध्यमा और अनामिका में एकत्व नहीं है क्योंकि मध्यमा और प्रदेशिनी में अन्यत्व हेतुत्व से अविशेषता है अर्थात् समानता नहीं है, और न इनका एक-दूसरे की अपेक्षा अर्थसत्व है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में हस्वत्व उत्पन्न नहीं किया है। यदि मध्यमा के सामर्थ्य से प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न होता है तो शश विषाण में या शक्रयष्टि में भी ह्रस्वत्व उत्पन्न होना चाहिए था और न स्वतः ही प्रदेशिनी में ह्रस्वता होती है क्योंकि परायेक्षाभाव में उसकी व्यक्ति का अभाव है अन्यथा अनामिका के अभाव में ह्रस्वता की प्रतीति होनी चाहिए थी। अतः अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन संस्कारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। न तो वह द्रव्य स्वतः ही अनन्तरूप है और न वह सर्वथा परकृत है, स्याद्वाद में ही इनकी सिद्धि होती है। उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय के सम्बन्ध भेद से उत्पन्न जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान तथा वस्तु उपकरण (कुण्डल, दण्ड) आदि के सम्बन्ध से कुण्डली, दण्डी आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है।" पर्यायों की अपेक्षा से वस्तु में अनन्तधर्मात्मकता - अतीत, अनागत और वर्तमान काल के सम्बन्ध से भी आत्मा अनन्तधर्मात्मक है जैसे मिट्टी आदि वस्तु में समुदाय अवयव के प्रध्वंश रूप का विषय करनेवाले अतीतकाल, उत्पत्ति की निश्चय से संभावना करनेवाले भविष्यत् काल और साधन-प्रवृत्ति अविराम (क्रिया सातत्यरूप) गोचर वर्तमान काल के सम्बन्ध से मिट्टी आदि द्रव्य उन-उन कालों में अनेक भेदों (पर्यायों) को प्राप्त होते देखे जाते हैं। यदि वर्तमान काल मात्र माना जाये तो पूर्व और अपरत्व (उत्तर) की अवधि का अभाव होने से 'बंध्या का पुत्र युवा है' इस कथन के समान वर्तमान काल का भी अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा भी अनादिअतीत काल सम्बन्धी परिणत सम्भावनीय, अनन्त, भविष्यतकालवर्ती तथा वर्तमान कालोद्भूत अर्थ और व्यञ्जन पर्यायों के भेद से द्वैविध्य को प्राप्त होनेवाली पर्यायों के (अर्थपर्याय और व्यञ्जन पर्यायों) सम्बन्ध से अनन्त धर्मात्मक है।12
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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