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जैनविद्या - 20-21 आत्मा की मूर्तामूर्तिकता - जैनदर्शन में षट् द्रव्य व्यवस्था में धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अमूर्त हैं और पुद्गल मूर्त द्रव्य है । आत्मा के मूर्तिक, अमूर्तिक के प्रति अनेकान्त है। कथञ्चित् आत्मा मूर्तिक है और कथञ्चित् अमूर्तिक है। कर्मबन्ध पर्याय के प्रति एकत्व होने से आत्मा कथञ्चित् मूर्तिक है क्योंकि आत्मा के कार्माण शरीर का अनादि सम्बन्ध है । तथापि अपने ज्ञानादि स्वलक्षण को नहीं छोड़ने के कारण कथञ्चित् अमूर्तिक है।
आत्मा की एकानेकात्मकता - आचार्य अकलंकदेव ने कहा है कि जीव एक होकर भी अनेकात्मक है अर्थात् जीव एकानेक स्वरूपात्मक है। यहाँ प्रश्न है जो एक है वह अनेक धर्मात्मक कैसे हो सकता है? इसका समाधान करते हुए कहा है वह अभाव से विलक्षण होने से 'अभूत' नहीं है, एकरूप का अभाव है अर्थात् 'अ' = नहीं है, 'भाव' = एकरूपता जिसमें, उसे अभाव कहते हैं । वह अभाव एकरूप है क्योंकि उसमें कोई भेद नहीं पाया जाता। अत: वह अभाव रूप से एक है परन्तु अभाव से विलक्षण जो भाव है वह तो नाना रूप है अर्थात् भाव में तो अनेक धर्म और अनेक भेद पाये जाते हैं, अभाव में नहीं है। यदि ऐसा नहीं माना जाये तो भाव और अभाव इन दोनों में अविशेषता हो जायेगी और वे दोनों एक हो जायेंगे। वह भाव छः प्रकार का है। जन्म, अस्तित्व, विपरिणाम, वृद्धि, अपक्षय और विनाश अर्थात् भाव में ही जन्म, सद्भावादि देखे जाते हैं। बाह्याभ्यन्तर दोनों निमित्तों के कारण आत्मलाभ करना जन्म है। यह इसका विषय है अर्थात् जन्म 'जायते' क्रियापद का विषय है जैसे मनुष्य गति आदि नामकर्म के उदय की अपेक्षा से आत्मा मनुष्यादि रूप पर्याय से उत्पन्न होता है ऐसा कहा जाता है। मनुष्यादि आयु के निमित्तों के अनुसार उस पर्याय में अवस्थान होना उसका सद्भाव, स्थिति या अस्तित्व है। इसमें अस्ति क्रिया का सम्बन्ध है। सत्भावरूप पदार्थ का अवस्थान्तर पदार्थ का पर्यायान्तर होना परिणाम है अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप से विद्यमान है उसका समूल नाश न होकर उसी में पर्यायों का पलटना परिणाम है। पूर्व स्वभाव को न छोड़कर भावान्तर से आधिक्य हो जाना वृद्धि है। जैसे अनुगत रूप मानव पर्याय को कायम रखते हुए शरीर की वृद्धि होती है। क्रमशः एकदेश का जीर्ण-शीर्ण होना अपक्षय कहलाता है जैसे मनुष्य पर्याय को कायम रखते हुए शरीर का क्षीण होना। सद्प पदार्थ के पर्याय सामान्य की सर्वथा निवृत्ति का नाम विनाश है जैसे मनुष्यायु का क्षय हो जाने से मनुष्य पर्याय का नाश । इस प्रकार प्रतिक्षण पर्याय भेद से पदार्थों में अनन्तरूपता होती है, अतः भावात्मक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है अथवा सत्व, ज्ञेयत्व, द्रव्यत्व, अमूर्तत्व, अति सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, असंख्येय प्रदेशत्व, अनादिनिधनत्व और चेतनत्व की दृष्टि से भी जीव अनेकधर्मात्मक है। आत्मा नामक पदार्थ सत्स्वरूप है, ज्ञान का विषय होने से ज्ञेय है, गुण-पर्याय-सहित होने से द्रव्य है, रूपादि रहित होने के कारण अमूर्तिक हैं, इन्द्रियों का विषय न होने से अतिसूक्ष्म है, एक में अनेक रहने के कारण अवगाहनत्व है, किसी-नकिसी प्रकार से मुक्त होने के कारण प्रदेशात्मक है, उत्पत्ति और विनाश-रहित होने से अनादिनिधन है और चेतना गुण से युक्त होने के कारण चेतनात्मक है। इस प्रकार एक ही पदार्थ पर्यायों के भेद से अनेक धर्मस्वरूप है।