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________________ 48 जैनविद्या - 20-21 व्योमशिव तथा वेदान्त में शंकराचार्य का है। आचार्य शुभचन्द्र ने मुग्ध होकर उनकी पुण्य सरस्वती को अनेकान्त गगन की चन्द्रलेखा लिखा है। उनके द्वारा रचित तत्त्वार्थवार्तिक में जैनदर्शन के प्राण अनेकान्तवाद को बहुत व्यापक रूप दिया गया है। जितने विवाद उत्पन्न किये गये हैं उन सबका समाधान प्राय: अनेकान्तरूपी तुला के आधार पर ही किया गया है । खोजने पर ऐसे बिरले ही सूत्र मिलेंगे जिसमें अनेकान्तात्' वार्तिक न हो। चतुर्थ अध्याय के अन्त में अनेकान्तवाद के स्थापनपूर्वक नय-सप्तभंगी और प्रमाण-सप्तभंगी का विवेचन किया गया है।' आचार्य अकलंकदेव ने वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने को अनेकान्त कहा है। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है। उसका मत है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर में विरोधी कहे जानेवाले नित्यत्वअनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व आदि अनन्त धर्मों का समूह है और वह प्रमाण का विषय है। अनेकान्तवादी होने के कारण जैनदर्शन ने शब्द की प्रतिपादकत्व शक्ति पर भी विचार किया और उसकी असामर्थ्य का अनुभव न करके स्याद्वाद के सिद्धान्त का आविष्कार किया। उसने देखा कि वस्तु के अनन्तधर्मा होने पर भी वक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से उसका विवेचन करते हैं । द्रव्यदृष्टिवाला उसे नित्य कहता है, पर्यायदृष्टिवाला उसे अनित्य कहता है, अत: इन विभिन्न दृष्टियों का समन्वय होना आवश्यक है। ____ आचार्य अकलंकदेव ने वस्तु-व्यवस्था के निर्धारण में अनेकान्त-प्रक्रिया की प्रतिष्ठापना में अनेक प्रकार से विचार किया है जिनको हम निम्न बिन्दुओं में वर्णन कर रहे हैं - तत्त्व-व्यवस्था में अनेकान्त - आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि जीव, अजीव और आस्रवादि के भेदाभेद का अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिए क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में एक को प्रधान और एक को गौण करके विवक्षा और अविवक्षा के भेद से जीव और अजीव में आस्रवादि का अन्तर्भाव हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। जैसे आस्रवादि, द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के हैं। द्रव्यास्रवादि पुद्गल रूप हैं और भावास्रवादि जीव रूप। पर्यायार्थिक नय की गौणता और द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से तथा आस्रवादि प्रतिनियत-पर्यायार्थ की अविवक्षा एवं अनादि पारिणामिक चैतन्य (जीव) और अचैतन्य (अजीव) द्रव्यार्थ की विवक्षा से कथन करने पर भावास्रव का जीव द्रव्य में और द्रव्यास्त्रव का अजीव द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है तथा द्रव्यार्थिक नय की गौणता और पर्यायार्थिक नय की प्रधानता से एवं आस्रवादि प्रतिनियत-पर्याय की विवक्षा एवं अनादि पारिणामिक चैतन्य तथा अचैतन्य द्रव्य की अविवक्षा से कथन करने पर जीव और अजीव में आस्रवादि का अन्तर्भाव नहीं होता अर्थात् आस्रव, बंध आदि स्वतंत्र हैं । पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इनका पृथक् निर्देश सार्थक है, निरर्थक नहीं। वस्तु की विधि-निषेधात्मकता- जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होती। आत्मा शब्दगोचर है इसलिए उभयात्मक है जैसे कुरबक पुष्प लाल और श्वेत दोनों रंग का नहीं होता है तथापि वह वर्णशून्य नहीं है। लाल और
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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