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________________ जैनविद्या - 20-21 अप्रेल - 1999-2000 अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव - डॉ. अशोककुमार जैन भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन का अप्रतिम स्थान है। भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टिरूप, जिसे हम जैनदर्शन की जान कहते हैं, एक ऐसा व्यवहार्य मार्ग निकाला जिसके समुचित उपयोग से मानसिक, वाचिक तथा कायिक अहिंसा पूर्णरूप से पाली जा सकती है। इस तरह भगवान महावीर की यह अहिंसास्वरूपा अनेकान्तदृष्टि तो जैनदर्शन के भव्य प्रासाद का मध्यस्तम्भ है। इसी से जैनदर्शन की प्राण प्रतिष्ठा है। भारतीय दर्शनशास्त्र सचमुच इस अतुल सत्य को पाये बिना अपूर्ण रहता। जैनदर्शन ने इस अनेकान्तदृष्टि के आधार से बनी हुई महत्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्र के कोषागार में अपनी ठोस और पर्याप्त पूंजी जमा की। पूर्णकालीन युगप्रधान समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि दार्शनिकों ने इसी दृष्टि के समर्थन द्वारा सत्-असत्, नित्यत्वानित्यत्व, भेदाभेद, पुण्य-पाप प्रकार, अद्वैत-द्वैत, भाग्य-पुरुषार्थ आदि विविध वादों में पूर्ण सामञ्जस्य स्थापित किया। मध्यकालीन आचार्य अकलंक, आचार्य हरिभद्र आदि तार्किकों ने अंशतः परपक्ष खण्डन करके भी उसी दृष्टि को प्रौढ़ किया। इसी दृष्टि के विविध प्रकार में उपयोग के लिए सप्तभंगी, नय, निक्षेप आदि का निरूपण हुआ। इस तरह भगवान महावीर ने अपनी अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए अनेकान्तदृष्टि का आविर्भाव करके जगत् को वह ध्रुव बीजमन्त्र दिया जिसका समुचित उपयोग संसार को पूर्ण सुख-शान्ति का लाभ करा सकता है।' ___ आचार्य अकलंकदेव का जैनन्याय में वही विशिष्ट स्थान है जो बौद्ध दर्शन में धर्मकीर्ति, मीमांसा दर्शन में भट्ट कुमारिल, प्रभाकर दर्शन में प्रभाकर मिश्र, न्याय-वैशेषिक में उद्योतकर और
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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