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________________ 44 जैनविद्या - 20-21 ___पहले प्रस्ताव में 8.5 कारिकाएँ हैं जिनमें विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर उसके इन्द्रिय, अनिन्द्रिय और अतीन्द्रिय रूप से तीन भेद किये हैं। प्रमाण का फल और प्रत्यक्ष विषयक सामग्री है। दूसरे प्रस्ताव में 9 कारिकाएँ हैं जिनमें परोक्ष प्रमाण के भेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को प्रमाण्य सिद्ध करके आगम के आलोक में परोक्ष पदार्थों के साथ अविनाभाव सम्बन्ध ग्रहण कर सकने का प्रतिपादन किया है। तर्क-कुतर्क का लक्षण दर्शाया है। तीसरे प्रस्ताव में 10 कारिकाएँ हैं जिनमें अनुमान प्रमाण तथा उसके अवयव, साध्य-साधन का लक्षण और अनेकान्तात्मक वस्तु में दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषों की समीक्षा है। चौथे प्रस्ताव में 12.5 कारिकाएँ हैं जिनमें हेतु सम्बन्धी विचार, उसके भेदों का विवेचन तथा इसके त्रिरूप का खण्डन किया है। अन्य मतों की समीक्षा की है। पाँचवें प्रस्ताव में 12 कारिकाएँ हैं जिनमें असिद्ध, विरुद्धादि हेत्वाभासों का निरूपण किया है। अज्ञात हेतु का अकिंचित्कर में अंतरभाव आदि हेत्वाभास विषयक प्ररूपण होकर अंतर्व्याप्ति का समर्थन किया है। छठे प्रस्ताव में 12.5 कारिकाएँ हैं जिनमें वाद का लक्षण, जय-पराजय, व्यवस्था का स्वरूप तथा जाति आदि का कथन किया है और अनेकान्त में संभवित आठ दोषों का परिहार करके वस्तु को उत्पादादिरूप सिद्ध किया है। इस प्रस्ताव में उल्लेखनीय वर्णन यह है कि बौद्धों ने जैनों को अह्नीक, पशु, अलौकिक, तामस, प्राकृत आदि विशेषण प्रयुक्त किये। अकलंकदेव ने अपनी प्रखर बुद्धि से इन शब्दों की असंगत-सिद्धान्त की व्याख्या कर उन्हें बौद्धों के लिए ही उपयुक्त सिद्ध किया। यथा, पशु लक्षण प्रत्यक्षं निष्कलं शेषं भ्रान्तं सारूप्य कल्पनम् क्षण स्थानमसत्कार्यमभाष्यं पशुलक्षणम् सातवें प्रस्ताव में 9.5 कारिकाएँ हैं जिनमें आगम प्रमाण का वर्णन कर सर्वज्ञ तथा अतीन्द्रिय ज्ञान की सिद्धि की है और तत्वज्ञान सहित चारित्र की मोक्ष हेतुता आदि विषयों का खुलासा किया है। आत्मा कर्ममल से छुटकारा कर कैसे सर्वज्ञ बनता है, इसका वर्णन है। आठवें प्रस्ताव में 13 कारिकाएँ हैं जिनमें सप्तभंगी के निरूपण के साथ नैगम आदि सात नयों का कथन आया है। नौवें प्रस्ताव की 2 कारिकाओं में निक्षेप का निर्देश करके प्रकरण का उपसंहार कर दिया है। 7. स्वरूप सम्बोधन स्व. डॉ. विद्याभूषण ने अकलंक रचित ग्रंथों में इसका उल्लेख किया है। इसकी विषयवस्तु और शैली कहीं-कहीं अकलंकदेव से मिलती है फिर भी पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने न्याय कुमुदचन्द्र की विस्तृत प्रस्तावना में मत व्यक्त किया कि यह रचना अकलंकदेव की नहीं है। उनके अनुसार स्वरूप सम्बोधन के रचियता के बारे में दो परम्पराएँ प्रचलित हैं, एक के अनुसार उसके कर्ता अकलंक हैं और दूसरी के अनुसार नयसेन के शिष्य महासेन इसके कर्ता हैं । भरतेश वैभव में पद्मनन्दिकृत स्वरूप सम्बोधन का नाम आया है। इस दृष्टि से स्वरूप सम्बोधन के कर्ता कौन हैं यह विवाद का विषय है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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