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जैनविद्या - 20-21
दूसरा प्रस्ताव अनुमान से सम्बद्ध है। इसमें अनुमान का लक्षण, साध्य - साधनाभास के लक्षण, हेत्वाभास, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, जाति, वाद आदि का सुन्दर विवेचन है । जीव का स्वरूप, चैतन्य के सम्बन्ध में चार्वाक आदि के मत का खण्डन, वैशेषिक के 'अगुणवान गुण:' की आलोचना, नैयायिक के पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतोदृष्ट और सांख्य के वीत, अवीत और वीतावीत हेतुओं की समालोचना आदि की है।
तीसरा प्रस्ताव आगम से सम्बन्धित है । इसमें आगम, मोक्ष और सर्वज्ञ का विवेचन करते हुए बुद्ध के करुणावत्व, सर्वज्ञत्व तथा चतुरार्यसत्व आदि की समीक्षा की है। इसमें वेदों के अपौरुषेयत्व और सांख्य के मोक्ष की आलोचना की है। अंत में सप्तभंगी निरूपण, स्याद्वाद में दिये जाने वाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि का प्रामाण्य और प्रमाण का फल आदि विषयों का विवेचन कर ग्रन्थ समाप्त हो जाता है I
विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक में इसके कई पद्य ज्यों-के-त्यों उद्धृत किये हैं । अकलंकदेव ने भी अष्टशती में इसकी दो-एक कारिकाएँ गद्यरूप में ली हैं। प्रमाण संग्रह में भी इसकी कारिकाएँ बहुतायत में मिलती हैं ।
5. सिद्धिविनिश्चय सवृति
यह दुर्लभ ग्रंथ कच्छ देश के 'कोडाय' ग्राम के श्वेताम्बर ज्ञान भण्डार से अनंतवीर्य कृत । फिर भी आद्य टीका रूप में जीर्ण अवस्था में प्राप्त हुआ। इस टीका में मूल भाग बहुत कम अक्षरों का उल्लेख कर टीका लिखी है। टीका में मूल का उल्लेख दो प्रकार से हुआ है। एक तो 'अत्राह' करके कारिका रूप से और दूसरे 'कारिका व्याख्यातुमाह' करके कारिका के व्याख्यान रूप से । इसी से यह ज्ञात हुआ कि टीका मूलग्रंथ और उसकी विवृति को लेकर बनाई गयी है।
सिद्धिविनिश्चय में 12 प्रस्ताव हैं जिनमें प्रमाण, नय और निक्षेप का विवेचन है । प्रत्येक प्रस्ताव में एक - एक विषय की सिद्धि की गयी है। इन प्रस्तावों का नाम इस प्रकार है( 1 ) . प्रत्यक्ष सिद्धि (2) सविकल्प सिद्धि (3) प्रमाणान्तर सिद्धि ( 4 ) जीव सिद्धि (5) जल्प सिद्धि (6) हेतु लक्षण सिद्धि (7) शास्त्र सिद्धि (8) सर्वज्ञ सिद्धि (9) शब्द सिद्धि (10) अर्थनय सिद्धि (11) शब्दनय सिद्धि एवं ( 12 ) निक्षेप सिद्धि ।
सिद्धसेन गणि की तत्वार्थटीका, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमाण मीमांसा और स्याद्वाद मंजरी में इसकी कारिकाएँ उद्धृत की गयी हैं। जिनशासन का यह एक प्रभावक ग्रन्थ माना गया है। 6. प्रमाण संग्रह सवृत्ति
एकान्त पक्ष के विरुद्ध जितने भी प्रमाण हो सकते थे, उनका संग्रह इस ग्रंथ में किया गया है । इसकारण इसकी भाषा और भाव अति कठिन है । यह गद्य-पद्यात्मक है। कहीं-कहीं गद्य भाग में पद्य का व्याख्यान भी किया है। अतः इसे अकलंकदेव के अन्य ग्रथों का परिशिष्ट भी कहा जा सकता है। यह ग्रंथ पं. सुखलालजी के प्रयास से पाटन के भण्डार से प्राप्त हुआ। इस टीका से ऐसा लगता है कि अनन्तवीर्य ने इस पर भी प्रमाण संग्रहालंकार या प्रमाण संग्रह भाष्य नाम की टीका लिखी है। इसमें 9 प्रस्ताव है और 89 कारिकाएँ हैं, शेष भाग गद्य में है ।