SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 जैनविद्या - 20-21 आत्मा में सम्यग्दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होने के उपरांत भी दोनों की पर्यायें भिन्नभिन्न हैं । जहाँ ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है, इसमें सूक्ष्म काल-भेद है, जिसका आभास नहीं हो पाता। ज्ञान और चारित्र में अर्थ-भेद भी है - ज्ञान जानने को कहते हैं और चारित्र कर्मबंध की कारण क्रियाओं की निवृत्ति को। अतः ज्ञान और चारित्र के अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं। द्रव्यार्थिक दृष्टि से ज्ञानादिक में एकत्व है तथा पर्यायार्थिक दृष्टि से अनेकत्व (1-1-61/64)। ज्ञानपूर्वक चारित्र ही उपादेय है। इसका प्रतिपादन करते हुए अकलंकदेव ने कहा कि सूत्र में दर्शन और चारित्र के बीच में ज्ञान का ग्रहण किया गया है, क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक ही होता है (1-1-30)। सांख्य, बौद्ध आदि विविध धर्म-दर्शनों की मीमांसा कर अकलंकदेव ने सिद्ध किया कि मोक्ष अर्थात् समस्त कर्मों का आत्यान्तिक उच्छेद रत्नत्रय के एकत्व से ही सम्भव है। मात्र ज्ञान या वैराग्य या क्रिया जैसे पृथक-पृथक घटकों द्वारा नहीं। आत्मार्थी को आत्मोपलब्धि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अध्यात्म के उक्त रहस्य को समझना आवश्यक है। ___ 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' प्रथम अध्याय का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है जो सम्यग्दर्शन का बोध कराता है। तत्त्वार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। 'तत्त्व' शब्द भावसामान्य का वाचक है। तत्त्व का अर्थ है- 'जो पदार्थ जिस रूप से है, उसका उसी रूप होना।' अर्थ का भाव है- 'जो जाना जाये'। तत्त्वार्थ का अर्थ है- 'जो पदार्थ जिसरूप से स्थित है, उसका उसीरूप (भवन) होना।' तात्पर्य यह है कि जिसके होने पर तत्त्वार्थ अर्थात् वस्तु का यथार्थ ग्रहण हो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं (1-2-5/16)। इस प्रकार ज्ञानस्वरूप आत्मा का भावबोध सहित श्रद्धान/ रुचि सम्यग्दर्शन है। श्रद्धान शब्द करण, भाव और कर्म तीनों साधनों से निष्पन्न होता है। श्रद्धान आत्मा की पर्याय है और आत्मा ही श्रद्धानरूप से परिणमित होता है (1-2-7/6)। सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्व-कर्म-प्रकृति में भेद दर्शाते हुए अकलंकदेव कहते हैं कि मोक्ष के कारणों का प्रकरण होने के कारण यहाँ आत्मा का उपादानभूत परिणाम ही विवक्षित है। सम्यग्दर्शन सीधे आत्मस्वरूप ही है जबकि सम्यकत्व-प्रकृति पुद्गल की पर्याय है। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय धारण करता है अतः वही मोक्ष का कारण है। अतः आत्मपरिणामरूप सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का साक्षात कारण है (1-2-9/16)। सम्यग्दर्शन इच्छापूर्वक नहीं होता? इसका स्पष्टीकरण करते हुए अकलंकदेव कहते हैं कि इच्छा लोभ की पर्याय है और केवली निर्मोही होते हैं। अत: 'जिसके होने पर आत्मा यथाभूत अर्थ का ग्रहण करता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं, यही लक्षण उचित है (1-2-26/28)। यह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है 1. सरागसम्यग्दर्शन और 2. वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यस्वरूप सराग सम्यग्दर्शन है। रागादि की शान्ति प्रशम है। संसार से डरना संवेग है। प्राणीमात्र में मैत्रीभाव अनुकम्पा और जीवादि पदार्थों के यथार्थस्वरूप में 'अस्ति' बुद्धि होना आस्तिक्य है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy