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________________ 37 जैनविद्या - 20-21 मध्यलोक तथा चौथे अध्याय में ऊर्ध्वलोक (स्वर्गलोक) का विस्तृत वर्णन है। पाँचवें अध्याय में छह द्रव्यों का निरूपण है। छठा अध्याय विभिन्न कार्यों से उत्पन्न कर्म-आस्रव से सम्बन्धित है। सातवें अध्याय में जैन गृहस्थाचार की व्याख्या है । आठवें अध्याय में कर्मबंधरूप कर्म सिद्धान्त का वर्णन है। नौवाँ अध्याय कर्मों के संवर, मुनियों का आचार एवं ध्यान एवं कर्म-निर्जरा से सम्बन्धित है तथा दसवें अध्याय में मोक्ष का सुन्दर वर्णन है। इन सभी अध्यायों की विशद टीका अकलंकदेव ने की है और उसमें जैन सिद्धातों के विवेचन के साथ ही अन्य दर्शनों की समीक्षा की है। इसके अतिरिक्त स्फोटवाद, क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा वैनिकवादियों की समीक्षा की है। तत्त्वार्थवार्तिक का अध्यात्म पक्ष धर्म मूलतः अध्यात्म से सम्बन्धित है जिसका लक्ष्य आत्मा को परमात्मा बनाना है। रागादि विकल्पों से रहित निज-शुद्धात्मा में अनुष्ठान की प्रवृत्ति ही अध्यात्म है। अध्यात्म में अभेद रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ और पदों के अनुकूल व्याख्या की जाती है। यद्यपि तत्त्वार्थवार्तिक जैन आगम ग्रंथ है फिर भी अकलंकदेव ने आचार्य कुन्दकुन्ददेव के द्रव्यानुयोग का अनुसरण करते हुए अध्याय एक के सूत्र संख्या एक, दो एवं अन्य अध्यायों में उपयुक्त स्थलों पर अध्यात्म पक्ष को प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया कि वीतरागता की प्राप्ति आत्मभूत, आत्माश्रित एवं त्रिरत्न के सुमेल से ही सम्भव है। इस सम्बन्ध में निम्न बिन्दु मननीय हैं - 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का पहला सूत्र है जो मोक्ष-मार्ग दर्शाता है। अकलंकदेव के अनुसार इसमें ज्ञान और दर्शन शब्द करण साधन हैं अर्थात् आत्मा की उस शक्ति का नाम ज्ञान है जिससे पदार्थ जाने जाते हैं और उस शक्ति का नाम दर्शन है जिससे तत्त्वश्रद्धान होता है। चारित्र शब्द कर्मसाधन है अर्थात् जो आचरण किया जाता है, वह चारित्र है' (1-1-4)। अंकलंकदेव ने आत्मा और ज्ञान के बीच कर्ता और करण के भेद-अभेद की और अन्त में ज्ञान से आत्मा को भिन्न-अभिन्न सिद्ध कर घोषित किया कि अखण्ड दृष्टि से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है (1-1-5/6)। अथवा 'जानाति इति ज्ञानम्' अर्थात् जो जाने सो ज्ञान, 'पश्यतीति दर्शनम्' अर्थात् जो श्रद्धा करे वह दर्शन, 'चरतीति चारित्रम्' अर्थात् जो आचरण करे वह चारित्र है । तात्पर्य यह है कि ज्ञानादि पर्यायों से परिणत आत्मा ही ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप होता है । इसलिये कर्ता और करण की भिन्नता का सिद्धान्त मानकर आत्मा और ज्ञान में भेद करना उचित नहीं है (1.1.22/23) अथवा ज्ञानादि शब्दों को भाव-साधन कहना चाहिए। 'ज्ञातिर्ज्ञानम्' अर्थात् जानने रूप क्रिया, 'दृष्टि दर्शनम्' अर्थात् तत्त्वश्रद्धान, 'चरणं चारित्रम्' अर्थात् आचरण। उदासीनरूप से स्थित ज्ञानादि क्रियाएँ ही मोक्षमार्ग हैं । क्रिया में व्याप्त ज्ञानादि में तो यथासंभव कर्तृसाधन, करणसाधन आदि व्यवहार होंगे (1-1-24)।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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