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जैनविद्या - 20-21
स्वतंत्र ग्रंथ 3. स्वोपज्ञवृत्ति सहित लघीयस्त्रय 4. न्यायविनिश्चिय सवृत्ति 5. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति 6. प्रमाण संग्रह सवृत्ति अन्य ग्रंथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष के अनुसार आपकी निम्न चार रचनाएँ और हैं7. स्वरूप सम्बोधन 8. वृहत्त्रयम् 9. न्याय चूलिका 10. अकलंक स्तोत्र (जिन स्तोत्र)। श्री पं. सदासुखदासजी ने इसकी भाषाटीका लिखी है। 1. तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य
अकलंकदेव ने दर्शन, तर्क, न्याय, आगम और अध्यात्म के आलोक में उमास्वाति कृत 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'तत्त्वार्थवार्तिक' नाम की बहुआयामी टीका लिखी। इसे 'तत्वार्थ राजवार्तिक' या 'राजवार्तिक' के नाम से भी पुकारा जाता है। इस टीका का आधार आचार्य पूज्यपाद कृत तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका है। तत्त्वार्थवार्तिक टीका गद्यात्मक है जिसमें पहले सूत्रात्मक वार्तिक लिखे गये और बाद में उनकी व्याख्या-भाष्य लिखा गया। इसमें परम्परागत व्याख्या के साथ ही नवीनता का भी समावेश है।
'तत्त्वार्थसूत्र' जैन दर्शन के सैद्धान्तिक एवं आगम पक्ष को प्रस्तुत करने वाला महत्वपूर्ण सूत्रात्मक ग्रंथ है जिसे कुछ अंतरसहित दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों स्वीकारते हैं। इसमें दस अध्याय हैं । अकलंकदेव जैन सिद्धान्त, अध्यात्म एवं आगम के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ ही गूढ दार्शनिक और तार्किक थे। स्वभावतः तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वत्र अकलंकदेव की दार्शनिकता एवं विशदज्ञान का दर्शन होता है। तत्त्वार्थसूत्र का प्रथम और पंचम अध्याय क्रमशः ज्ञान और द्रव्यों से सम्बन्धित है जो दर्शन के प्रधान अंग हैं । दर्शनशास्त्र के पाठकों के लिए ये अध्याय ज्ञानवर्धक और रोचक सिद्ध होंगे।
तत्त्वार्थवार्तिक की दूसरी विशेषता जैन सिद्धान्त के प्राण अनेकान्तवाद की व्यापक रूप से स्थापना करना है। अकलंकदेव ने न केवल दार्शनिक मन्तव्यों अपितु आगमिक रहस्यों में भी यथास्थान अनेकान्तवाद की चर्चाकर उसे प्रतिष्ठित किया। प्रथम अध्याय के छठे सूत्र 'प्रमाणनयैरधिगमः' में सप्तभंगी तथा चतुर्थ अध्याय के अंत में अनेकान्तवाद के स्थापनपूर्वक नय सप्तभंगी और प्रमाण सप्तभंगी का सुन्दर विवेचन किया है।
जहाँ तक आगमिक विषयों का सम्बन्ध है, अकलंकदेव षट्खण्डागम के विशेषज्ञ थे, जिसका अनुगमन प्रस्तुत वार्तिक में किया गया। द्वितीय अध्याय में पाँच भाव और उनके भेद, जीवों का लक्षण और भेद एवं उससे सम्बन्धित वर्णन है। तीसरे अध्याय में अधोलोक और