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जैनविद्या - 20-21 ___'राजावलिकथे' में अकलंक को काञ्ची के जिनदास नामक ब्राह्मण का पुत्र कहा है। इसमें भी अकलंक द्वारा बौद्ध धर्माध्ययन एवं प्राणरक्षा की उक्त घटना का वर्णन किया है । इसके अनुसार अकलंक ने जैन दीक्षा लेकर सुधापुर के देशीयगण का आचार्य पद सुशोभित किया। शास्त्रार्थ विजय और तारादेवी का भंडाफोड़
अकलंकदेव जैन, बौद्ध और अन्य दर्शनों के निष्णात विद्वान थे। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर बौद्ध गुरुओं को पराजित कर जैनधर्म के अनेकान्तवाद, अहिंसा आदि सिद्धान्तों की ध्वजा फहराई और अपनी उदारता-सदाशयता का परिचय दिया। इसकी पुष्टि निम्न घटना से होती है।
कलिंग देश के रतनपुर का राजा हिमशीतल बौद्ध धर्मानुयायी था, किन्तु उसकी पत्नी मदनसुन्दरी जैन थी। वह धर्म प्रभावना हेतु जैन रथ निकलवाना चाहती थी। राजा के बौद्ध गुरु इस पक्ष में नहीं थे। उन्होंने शर्त रखी कि बौद्ध गुरुओं को शास्त्रार्थ में पराजित करने पर ही जैन रथ निकालने की अनुमति दी जाये। राजा के समक्ष धर्म संकट उपस्थित हो गया। अकलंक ने इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया। तदनुसार राजा के दरबार में जैन और बौद्ध गुरुओं के मध्य छ: माह तक परदे के पीछे शास्त्रार्थ होता रहा। अकलंकदेव विस्मय में थे, कि यह कैसे हो रहा है। उन्हें ज्ञात हुआ कि परदे के पीछे घड़े में बैठी तारादेवी (देवीयशक्ति) बौद्ध गुरुओं के स्थान पर शास्त्रार्थ कर रही है। उन्होंने साहसपूर्वक परदे को खोल कर घड़े को फोड़कर तारादेवी का भंडाफोड़ कर दिया। तारादेवी भाग खड़ी हुई और बौद्ध गुरु पराजित हो गये। रानी बहुत. प्रसन्न हुई और उसने उत्साहपूर्वक जैन रथ निकालकर धर्मप्रभावना की। प्रजाजन हर्षित हुए।
'राजावलिकथे' में यह घटना कुछ परिवर्तन सहित वर्णित है। इसके अनुसार बौद्ध गुरुओं ने शास्त्रार्थ में पराजित होनेवाले पक्ष को कोल्हू में पिरवा देने की क्रूर शर्त रखी। शास्त्रार्थ सत्तरह दिन चला। कूष्माण्डिनी देवी ने अकलंकदेव को स्वप्न में प्रश्नों को प्रकारान्त रस में उपस्थित करने पर जीतने का संदेश दिया। अकलंक ने वैसा ही किया और शास्त्रार्थ में विजयी हुए। पश्चात् अकलंक ने राजा से अनुरोध कर बौद्ध गुरुओं को कोल्हू में पिराये जाने का दण्ड क्षमा करवाया। बौद्ध गुरु कलिंग से सीलोन चले गये। इस प्रकार अकलंक ने अहिंसा एवं क्षमाशीलता का सभी को भाव-बोध कराया। पाण्डव पुराण में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि कलिकाल में वे कलंक रहित अकलंक श्रुत को विभूषित करें जिन्होंने घट में बैठी मायारूपीधारणी देवी को पैर से ठुकराया। श्रवणवेलगोल की मल्लिषेण प्रशस्ति से भी उक्त घटना की पुष्टि होती है। इस प्रशस्ति का लेखन काल शक सम्वत् 1050 है।
अकलंकदेव की विद्वत्ता, साहस, आत्माभिरुचि युक्त तार्किकता तथा जैन-न्याय के प्रति योगदान को दृष्टिगत कर आचार्य विद्यानंद ने उन्हें 'सकलतार्किक चक्रचूड़ामणि से विभूषित कर उनके प्रति बहुमान प्रकट किया है।