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जैनविद्या - 20-21
अर्थ- लघुहव्व नृपति के वर अर्थात् ज्येष्ठ या श्रेष्ठ पुत्र निखिल विद्वज्जनों के द्वारा जिनकी विद्या का लोहा माना जाता है, जो सज्जन पुरुषों के हृदयों को आह्लादित करनेवाले हैं, वे अकलंकब्रह्मा जयशील हैं। इसके अनुसार अकलंकदेव लघुहव्व नृपति के पुत्र हैं । लघुहव्व कौन थे और दक्षिण में किस प्रदेश के राजा थे, इस पद्य से कुछ भी ज्ञात नहीं होता।
अकलंकदेव के जीवन के सम्बन्ध में प्रभाचन्द्र एवं ब्रह्मचारी नेमिदत्त के 'कथा कोश' तथा 'राजावलिकथे' ग्रथों में अकलंक-कथाएँ मिलती हैं जिनसे उनके जीवन पर प्रकाश पड़ता है। इन कथाकोशों के अनुसार अकलंकदेव मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे। उनकी माता का नाम पद्मावती था। उनके दो पुत्र थे- अकलंक और निष्कलंक। एक बार अष्टाह्निका पर्व पर उनके माता-पिता ने अपने पुत्रों सहित रविगुप्त मुनि के समक्ष आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। इस व्रत को अकलंक और निष्कलंक ने भावपूर्वक ग्रहणकर आजीवन व्रत मान लिया और युवावस्था में विवाह करने से इन्कार कर दिया। वे महाबोधि विद्यालय में तत् समय प्रचलित बौद्धधर्म का अध्ययन करने लगे। यह घटना दोनों भाइयों की विषय-विरक्ति आत्माभिरुचि एवं चारित्रिक दृढ़ता का सूचक है । यद्यपि दोनों भाई जैनधर्म को समर्पित थे, फिर भी निष्कलंक की अपेक्षा अकलंक बुद्धि में प्रवर थे। जैनत्व का रहस्य खुला और निष्कलंक का बलिदान
एक दिन बौद्ध गुरु सप्तभंगी-सिद्धान्त समझा रहे थे, परन्तु पाठ अशुद्ध होने के कारण विषय स्पष्ट नहीं हो रहा था। गुरु के जाने के पश्चात् अकलंक ने पाठ शुद्ध कर दिया। इस पर गुरु को यह संदेह हो गया कि ये दोनों भाई जैन हैं । अन्य प्रमाणों से भी इसकी पुष्टि हुई। तदनुसार धर्मविद्वेष के कारण दोनों भाइयों को बंदीगृह में कैद कर दिया। एक रात्रि में दोनों भाई बंदीगृह से निकल कर भागने में सफल हो गये। प्रात:काल बौद्ध गुरु के आदेश पर उन्हें पकड़ने हेतु चारों ओर घुड़सवारों को दौड़ा दिया गया। घुडसवारों को पीछे आते देख निष्कलंक ने अकलंक को तालाब में कूदकर अपनी रक्षा करने को कहा। अकलंक ने भाई की आज्ञानुसार तालाब में कूदकर अपने को कमल-पत्रों में छिपा लिया। तालाब में एक धोबी कपड़े धो रहा था। घुड़सवारों को निकट आता देख वह भी प्राण रक्षा हेतु निष्कलंक के साथ भागा। घुड़सवारों ने दोनों को भाई समझ कर उनकी हत्या कर दी पश्चात् अकलंक तालाब से बाहर भ्रमण करने लगे। ___ उक्त घटना की दो निष्पत्तियाँ हैं। पहली जैनधर्म के प्रचारार्थ अकलंक को सुरक्षित कर निष्कलंक द्वारा प्राणोत्सर्ग। यह घटना अपने आप में बे-मिसाल और प्रेरणाप्रद है जो वीतरागधर्म के रक्षार्थ/प्रचारार्थ मृत्यु के वरण तक की प्रेरणा देती है। दूसरी, विद्वेष चाहे धार्मिक हो या अन्य कोई और, सदैव अंधा, क्रूर और बर्बर होता है। इसी धार्मिक विद्वेष की आग में निष्कलंक के साथ धोबी भी अपने प्राण गँवा बैठा। यह दोनों निष्पत्तियां आज भी उतनी ही सामयिक और यथार्थ हैं, जितनी तेरह सौ वर्ष पूर्व थी। अकलंकदेव ने जीवनपर्यंत अनेकान्तरूप जैनधर्म के प्रचार एवं विद्वेष के शमन की साधना की।