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________________ 00 जैनविद्या - 20-21 बौद्ध दर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है वही स्थान जैन दर्शन में अकलंकदेव का है। अकलंकदेव जैनधर्म के प्रखर तार्किक एवं दार्शनिक आचार्य थे। उनके द्वारा सृजित जैन-न्याय को अकलंक न्याय भी कहा जाता है। अकलंकदेव की प्रमाण-व्यवस्था को दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों ने बिना परिवर्तन के यथावत् स्वीकार किया है। महाकवि धनञ्जय ने अनेकार्थ नाममाला कोश में अकलंकदेव की प्रमाण-व्यवस्था का स्मरण बहुमानपूर्वक निम्न प्रकार किया है प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्। धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्॥ अर्थ -अकलंक का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनञ्जय कवि का काव्य, ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं। __ अकलंकदेव के कर्तत्व अर्थात् तत्त्वार्थवार्तिक एवं सिद्ध विनिश्चय का उल्लेख आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला और जयधवला में तत्त्वार्थ भाष्य के नाम से किया है। उनके शिष्य जिनसेन ने अपने महापुराण में 'भट्टाकलंक श्रीपाल पात्र केसरिणां गुणा' लिखकर उनका नामोल्लेख किया है। न्यायविनिश्चय के टीकाकार वादिराज (शक सम्वत् 948) ने अकलंकदेव को 'तार्किक लोक मस्तक मणि' की उपाधि से विभूषित किया है। उन्होंने अपने पार्श्वनाथचरित्र में अकलंकदेव की जय-जयकार करते हुए शून्यवादी बौद्धों के विजेता के रूप में निरूपित किया है। हनुमच्चरित में भी अकलंकदेव की बौद्धों के विजेता के रूप में जयकार की है। श्रवणवेलगोला के अभिलेख क्रमांक 47 में लिखा है षटतर्केष्वकलङ्कदेव विवुधः साक्षादयं भूतले अर्थ- अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्र में इस पृथ्वी पर साक्षात् विवुध (बृहस्पति देव) थे। अभिलेख क्रमांक 108 में पूज्यपाद के पश्चात् अकलंकदेव का स्मरण कर उन्हें मिथ्यात्व अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य-समान बताया गया है। विन्ध्यगिरि के शिलालेख क्रमांक 105 के पद 21 में अकलंकदेव को स्मरण करते हुए लिखा है - 'बौद्ध आदि दार्शनिकों के मिथ्या उपदेशरूपी पंक से सकलंक हुए जगत को मानो अपने नाम को सार्थक बनाने ही के लिए भट्टाकलंक ने अकलंक कर दिया।12 जीवन परिचय तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अंत में निम्न प्रशस्ति उपलब्ध है जीयाच्चिरमकलङ्क ब्रह्मा लघु हव्व नृपति वरतनयः। अनवरत निखिल विद्वज्जन नुत विद्यः प्रशस्त जनहृद्यः॥
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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