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जैनविद्या - 20-21
अप्रेल - 1999-2000
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जैन-न्याय के उन्नायक : भट्ट अकलंकदेव
- डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
प्रत्येक व्यक्तित्व अपने समय की देन होता है जिसमें उसके आंतरिक गुण आवश्यकता के अनुरूप पल्लवित और विकसित होते हैं। जैन-न्याय के सुप्रसिद्ध पोषक भट्ट अकलंकदेव जैनागम के ऐसे सशक्त हस्ताक्षर हैं जिनको विस्मृतकर जैन-न्याय शास्त्र के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। तर्क व युक्ति द्वारा वस्तु-स्वरूप का निर्णय करने हेतु न्याय शास्त्र का उद्भव हुआ। जबकि अश्वघोष, नागार्जुन, कणाद, जैमिनी आदि धर्मोपदेष्टा एकान्त से पदार्थों की सिद्धि कर रहे थे, जैनधर्म के दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र ने ईसा की दूसरी शताब्दी में सर्वज्ञता के पोषण हेतु देवागमस्तोत्र में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानकर वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप को प्रमाण और नय से निश्चित करते हुए जैन-न्याय शास्त्र की स्थापना की। पश्चात् सिद्धसेन दिवाकर ने 'न्यायावतार' आद्य जैन-न्यायग्रंथ रचा। __ विक्रम की 7वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में बौद्ध धर्मावलम्बियों ने वाद-विवाद में अन्य मतों के आचार्यों को पराजित कर अपना वर्चस्व स्थापित किया था। इस विजय ने बौद्धों को धर्मान्ध बना दिया और अन्य धर्मावलम्बियों को अनेक पीड़ा भोगनी पड़ी। ऐसे संक्रमण काल में भट्ट अकलंकदेव का उद्भव हुआ। अकलंकदेव ने देवागम स्तोत्र पर अष्टशति एवं तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य लिखे, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, प्रमाण संग्रह आदि मौलिक ग्रंथ लिखकर, जैन-न्याय का भव्य प्रासाद निर्मित किया और बौद्धादि मान्यताओं का निरसन किया।