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________________ जैनविद्या - 20-21 29 अकलंक को 'वृत्तिकार', 'विगलिततिमिरादिकलंक:', 'निरस्त ग्रहोपरागाद्युपद्रवः', 'विगलित ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मात्मकलंक: आदि अलंकरणों से अलंकृत किया है। लघु समन्तभद्र ने भी उन्हें 'सकलतार्किक चूड़ामणि', 'भट्टाकलंकदेव', 'वार्तिककार', 'भाष्यकार' आदि कहकर उनकी स्तुति की है। उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों/कवियों/लेखकों ने उन्हें महान् तार्किक, दार्शनिक, वादविजेता, अद्भुत प्रभावसम्पन्न, जिनतुल्य, युगप्रवर्तक तार्किक लोक मस्तकमणि, तर्क भूवल्लभ, अकलंक श्री, बौद्धबुद्धिवैधव्यः दीक्षागुरु; विद्वदहृदय मणिमाल, नरसुरेन्द्र वन्दनीय, प्रमाणवेत्ता के रूप में स्मरण किया है। इस विषय में और अधिक विस्तार से अध्ययन किया जाये तो अकलंक के अगाध पाण्डित्य के सन्दर्भ में नये-नये तथ्य उद्घाटित हो सकते हैं । विद्वानों को इस ओर दत्तावधान होना चाहिए। 1. न्यायकुमदचन्द्र की प्रस्तावना, पृष्ठ 27 2. जैन शिलालेख संग्रह, द्वितीय भाग, लेख 213, पृष्ठ 263 3. वही, द्वितीय भाग, लेख 277, पृष्ठ 416 4. वही, प्रथम भाग, पृष्ठ 104 5. वही, प्रथम भाग, पृष्ठ 105 6. वही, तृतीय भाग, पृष्ठ 350 7. वही, तृतीय भाग, लेख 319, पृष्ठ 46 8. वही, तृतीय भाग, लेख 326, पृष्ठ 66 9. वही, प्रथम भाग, लेख 68, पृष्ठ 24 10. वही, तृतीय भाग, पृष्ठ 206 11. वही, तृतीय भाग, पृष्ठ 195 12. वही, प्रथम भाग, पृष्ठ 211 13. वही, प्रथम भाग, पृष्ठ 338 14. न्यायकुमुदचन्द्र, पृष्ठ 521 तथा 604 15. लघीयस्त्रय तात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ 18, 69, 73, 103 आदि 16. सिद्धिविनिश्चय टीका, पृष्ठ 260 17. न्यायविनिश्चय विवरण, पृष्ठ 369 18. अष्टसहस्री 19. अष्टसहस्री, टिप्पण, पृष्ठ 1, 2, 80 आदि रीडर एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग श्री कुन्दकुन्द जैन पी.जी. कालेज खतौली - 251201 (उ.प्र.)
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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