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जैनविद्या - 20-21
विन्ध्यगिरि पर्वत पर सिद्धरवस्ति में उत्तर की ओर एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख में अकलंकदेव को 'भट्टाकलंक', 'सौंगतादि खण्डनकर्ता' तथा 'समन्तादकलंकः' कहा है।"
सिद्धरवस्ति के ही एक अन्य स्तम्भलेख में अकलंक 'शास्वविद', 'मुनीनांअग्रेसर', 'सूरि', 'मिथ्यान्धकार विनाशक' और 'अखिलार्थ प्रकाशक' कहे गये हैं । यथा
ततः परं शास्त्रविदां मुनीनाम ग्रेसरोऽ मूदकलंक सूरिः।
मिथ्यान्धकारस्थगिता खिलाएँ प्रकाशितायस्य वचोमपूरवैः ॥2 __ सोंदा (उत्तर कन्नड) मैसूर के 1607 ई. के एक शिलालेख में 'स्याद्वाद न्यायवादि' के रूप में अकलंक स्तुत हैं। ___ इनके अतिरिक्त इंचवाडि (मैसूर) के 10वीं शती के सुकदरे (होणकेरी परगना) के 1020 ई., बादामी 1039 ई., यल्लादहल्लि 1054 ई., कडवन्ति 1060 ई., बन्दतिके 1074 ई., वलगाम्वे 1077 ई., आलहल्लि 1120 ई., चामराजनगर 1117 ई., कल्लूरगुङड 1121 ई., चल्लग्राम शक सं. 1047, वेलूर 1059 (शक) आदि लगभग 500 शिलालेखों में अकलंक का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया गया है।
अकलंक का परवर्ती जैन साहित्य तो उनके गुणानुवाद से भरा पड़ा है। और हो भी क्यों न? जैन न्याय को उनका अवदान अप्रतिम है, जैनधर्म की रक्षा का उन जैसा उदाहरण इतिहास में दूसरा नहीं मिलता। कुवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित करनेवाले अकलंक हम सभीके वन्दनीय हैं। अकलंक के ग्रन्थों के टीकाकारों ने उनका नाम जिस सम्मान के साथ लिया है, उसके वे शत प्रतिशत अधिकारी हैं।न्यायकुमुदचन्द्रकर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र ने अकलंक को अगाधकुनीतिसरित शोषकं', 'अशेषकुतर्क विभ्रमतमोनिर्मूलनकर्ता', 'स्याद्वादकिरण प्रसारकः', 'अकलंक . भानुः', 'समस्त मतवादिकरीन्द्रदर्पमुन्मूलकः', 'स्याद्वादकेसरी', 'पंचानन' आदि अलंकरणों से अलकृत किया है। यथा
'येनाऽशेषकुतर्क विभ्रमतमो निर्मूलमुन्मूलितम् स्फारागाध कुनीति सार्थ सरितो निःशेषतः शोषिताः स्याद्वादऽप्रतिसूर्य भूत किरणैः व्याप्तं जगत् सर्वतः सश्रीमानकलंकभानुरसमो श्रीयात जिनेन्द्रः प्रभुः॥ इत्थं समस्तमतवादिकरीन्द्र दर्पमुन्मूलयन्नमल भानदृढ़ प्रहारैः।
स्याद्वाद केसर सदाशत तवमूर्तिः पचाननो भुविजयत्य कलंक देवः ॥4 लघीयस्त्रय तात्पर्यवृत्ति में अमरचन्द्रसूरि ने अकलंक को 'जिनाधीश','सकल तार्किक चक्र चूड़ामणि', 'अकलंक शशांक:' आदि विशेषणों से युक्त बताया है। सिद्धिविनिश्चय टीका में अनन्तवीर्याचार्य ने अन्य विशेषणों के साथ ही उन्हें 'परहितावधान दीक्षित' और 'समदर्शी' कहा है। न्यायविनिश्चय विवरण में वादिराज सूरि ने उन्हें 'तार्किक लोक मस्तक भवि' उपाधि से स्मरण किया है।" आप्तमीमांसा पर भाष्य लिखनेवाले आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री में