________________
27
जैनविद्या - 20-21
अकलंकदेव की निर्विवाद विद्वत्ता, तार्किकता और न्याय शास्त्र विशेषतः जैन न्याय में अप्रतिम अवदान के कारण परवर्ती आचार्यों ने उनका उल्लेख बड़े ही सम्मान के साथ किया है, साथ ही अनेक उपाधियों से भी उन्हें अलंकृत किया है। विशेषतः दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रदेश में स्थित अनेक मन्दिरों-बस्तियों में उत्कीर्ण विभिन्न शिलालेखों में अकलंक का नाम भगवान महावीर की विश्रुत परम्परा में गौरव के साथ लिया गया है। अनेक ग्रन्थों में उनके नाम का उल्लेख बड़े ही सम्मान के साथ किया गया है। इनमें उपर्युक्त अनेक उपाधियों के साथ उनका उल्लेख है।
हुम्मच के पञ्चत्वस्ति प्राङ्गण में 1077 ई. में लिखित संस्कृत तथा कन्नड भाषामय लेख में उन्हें 'स्याद्वादामोघजिहवे' तथा 'वादिसिंह' उपाधियों से अलंकृत किया गया है । कल्लूरगुङड (शिमोगा-परगना) में सिद्धेश्वर मन्दिर की पूर्व दिशा में पड़े हुए पाषाण पर उत्कीर्ण लेख में अकलंकदेव को 'तार्किक चक्रेश्वर' के रूप में उल्लिखित किया गया है। यह शिलालेख 1121 ई. का है। चन्द्रगिरि पर्वत की पार्श्वनाथ वसदि में एक स्तम्भ पर लिखित मल्लिषेण प्रशस्ति (शक सं. 1050) में अकलंक की 'तारा विजेता' के रूप में स्तुति की गई है। यथा
तारायेन विनिर्जिता घट-कुटी गूढावतारा समं बौद्वैर्यो धृत-पीठ-पीड़ित कुदृग्देवास्त सेवाञ्जलिः। प्रायश्चित्तमिवाझिवारिज रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्य कस्य विषयो देवाकलंकः कृती।। उक्त शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने राजा हिमशीतल की सभा में बौद्धों को परास्त किया था। यथा
नाहंकार वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणां केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य बुद्धयामया राज्ञःश्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो
बौद्धोधान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः।। ___ बेलूर के शक सं. 1059 के शिलालेख में उन्हें 'जिनसमय दीपक' कहा गया है । तारा विजेता के रूप में उनकी स्तुति बोंगादि (1145 ई.) के एक भग्न शिलालेख में भी की गयी है।'
हुम्मच के 1147 ई. के एक खम्भे पर उत्कीर्ण संस्कृत-कन्नड भाषामय शिलालेख में उन्हें 'जिनमत कुवलय शशांक' कहा गया है । चन्द्रगिरि पर्वत के ही महानवमी मंडप के स्तम्भ पर उत्कीर्ण एक शिलालेख में अकलंकदेव को 'महामति' और 'जिनशासनालंकृता' कहा गया है। यह लेख शक सं. 1085 का है। जोडिवसवनपुर में हुण्डि-सिद्दन चिक्क के खेत में पाये गये संस्कृत-कन्नड भाषामय 1183 ई. के शिलालेख में अकलंकदेव को अपनी प्रबल शास्त्रार्थ विजयों के द्वारा बौद्ध पण्डितों को मृत्यु तक का आलिङ्गन करानेवाला बताया गया है । यथा
तस्याकलंक देवस्य महिमा केन वर्ण्यते। यद् वावय खङ्गघातेन ह्तो बुद्धो विबुद्धिसः॥