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________________ 26 जैनविद्या - 20-21 प्रशस्त करने, कुवादियों के कुतर्क-प्रासादों को ध्वस्त करने, जैनधर्म/न्याय को विश्वविजयी बनाने के बाद भी अपने सन्दर्भ में कहीं कुछ उल्लेख नहीं किया है। इसे काल का प्रभाव कहा जाए या उन आचार्यों/विद्वानों/इतिहासविदों/आलोचकों की निस्पृहता। फिर भी विद्वानों ने उनके पूर्वापर प्रसंगों/उल्लेखों के आधार पर उनका समय निर्धारित करने का सफल प्रयत्न किया है। अकलंकदेव के समय के सन्दर्भ में न केवल भारतीय विद्वानों अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने भी पर्याप्त गंवेषणा की है। विदेशी विद्वानों में डॉ. पीटर्सन, डॉ. लुइस राईस, डॉ. एम. विन्टरनित्ज, डॉ. ए.वी. कीथ, डॉ. एफ.डब्ल्यू थामस के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतीय विद्वानों में डॉ. के.बी. पाठक, डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, डॉ. आर.जी. भाण्डारकर, पं. नाथूराम प्रेमी, पं. कामताप्रसाद, पं. सुखलाल संघवी, डॉ. बी.एस. सालेतोर, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री आदि ने इस विषय में गहन अध्ययन किया है। इस विषय में दो मत प्रमुख रूप से सामने आते हैं। प्रथम मत अकलंकदेव का समय सातवीं शताब्दी मानता है। इसके समर्थक श्री पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, श्रीकण्ठ शास्त्री, आर. नरसिंहाचार्य, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, डॉ. ए.एन. उपाध्ये, डॉ. ज्योतिप्रसाद आदि हैं। द्वितीय मत अकलंक को आठवीं शती के उत्तरार्द्ध में रखे जाने के पक्ष में है। इस मत को माननेवालों में पं. नाथूराम प्रेमी, डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, डॉ. के.बी. पाठक, डॉ. कीथ, डॉ. थामस, डॉ. भाण्डारकर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अकलंक के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग उनके द्वारा जैनधर्म की रक्षा किया जाना है। जिसमें उनके भाई निकलंक का प्राणोत्सर्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। अकलंक द्वारा बौद्धों से शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त करना तथा तारादेवी, जो परदे के पीछे घट में विराजमान थी और शास्त्रार्थ कर रही थी, के घट को अपने ज्ञान के प्रभाव से जानकर नष्ट करना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। ___पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने उन्हें दक्षिण भारत का निवासी बताया है। उन्होंने कथाकोष में आई अकलंक विषयक कथाओं का मान्यखेट आदि के सन्दर्भ को लेकर उसकी प्रामाणिकता के ऊपर सन्देह उत्पन्न किया है। पं. कैलाशचन्दजी के अनुसार अकलंक राजपुत्र थे और उनके पिता का नाम लघुहत्व था। जैन न्यायशास्त्र को जो योगदान अकलंकदेव ने दिया है वह अपना उदाहरण आप है। उन जैसा तार्किक शायद ही जैन न्याय के इतिहास में कोई हो। उनके द्वारा दी गयी प्रमाण व्यवस्था को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने अपनी-अपनी प्रमाण मीमांसा विषयक कृतियों में बिना किसी हेर-फेर के स्वीकार किया है। आचार्य अकलंकदेव की कृतियों में तत्वार्थवार्तिक (अपरनाम तत्वार्थवार्तिक व्याख्यालंकार, राजवार्तिक या तत्वार्थ राजवार्तिक), अष्टशती, लघीय स्त्रय (स्ववृत्ति सहित), न्याय विनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति), प्रमाणसंग्रह उपलब्ध हैं । इनके अतिरिक्त स्वरूप-सम्बोधन, अकलंक स्तोत्र, अकलंक प्रतिष्ठापाठ, अकलंक प्रायश्चित्त उपलब्ध हैं किन्तु ये विवादग्रस्त कृतियाँ हैं।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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