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________________ जैनविद्या - 20-21 ... व्रती निःशल्यो व्रतीः। अनेकधा प्राणिगणशरणाच्छल्यम्॥1॥विविधवेदनाशलाकाभिः प्राणिगणं शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्। ___ आबाधकत्वादुपचारसिद्धिः॥2॥ यथा शरीरानुप्रवेशात् काण्डादिप्रहरणं शरीरिणो बाधाकरं शल्यं तथा कर्मोदयविकारोऽपि शारीरमानसबाधाहेतुत्वात् शल्यमिव शल्यमित्युपचर्यते। तत्रिविधं मायानिदानमिथ्यादर्शनभेदात्॥3॥तदेतच्छल्यं त्रिविधं वेदितव्यम्। कुतः? मायानिदानमिथ्यादर्शनभेदात्। माया निकृतिर्वञ्चनेत्यनर्थान्तरम्, विषयभोगाकाङ्क्षानिदानम्, मिथ्यादर्शनगतत्त्वश्रद्धानम्। एतस्मात्रिविधाच्छल्यान्निष्कान्तो निःशल्यो व्रतीत्युच्यते।। तत्त्वार्थराजवार्तिक, 7.18 शल्यरहित व्रती होता है। अनेक प्रकार की वेदनारूपी सुइयों से प्राणी को जो छेदें वे शल्य हैं। जिस प्रकार शरीर में चुभे हुए काँटा आदि प्राणी को बाधा करते हैं उसी तरह कर्मोदयविकार भी शारीर और मानस बाधाओं का कारण होने से शल्य की तरह होने से शल्य कहा जाता है। 1-2। शल्य तीन प्रकार की है - माया, मिथ्यादर्शन और निदान । माया अर्थात् वंचना, छलकपट आदि। विषयभोग की आकांक्षा निदान है। मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान। इन तीन शल्यों से निकला हुआ (तीन शल्यों से रहित) व्यक्ति व्रती होता है। अनु. - प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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