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जैनविद्या - 20-21
23 डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने अपनी 'दि जैना सोर्सेज ऑफ दि हिस्ट्री ऑफ एन्श्येन्ट इण्डिया' में अकलंक के आश्रयदाता साहसतुंग के पश्चिमी चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य प्रथम (642681 ई.) जो पुलकेशिन द्वितीय (606-642 ई.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था, से अभिन्न होने की संभावना व्यक्त की है। उनके अनुसार अकलंक अनुश्रुति के राजा हिमशीतल चीनी यात्री ह्वेनसांग के भारत भ्रमण (643 ई.) के समय में विद्यमान कलिंग नरेश 'त्रिकलिंगाधिपति' प्रतीत होते हैं जिनकी राजसभा में रत्नपुर में महायानी बौद्ध विद्वानों से उक्त ऐतिहासिक वाद-विवाद 643 ई. में हुआ था। अकलंक के गुरु रविगुप्त को उन्होंने ऐहोल शिलालेख (634 ई.) के रचयिता रविकीर्ति से चीन्हा है, और कन्हेरी के बौद्ध मठ में अकलंक द्वारा बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने का उल्लेख किया है।
अन्य अनेक प्राचीन भारतीय मनीषियों की भांति यह अकलंकदेव भी विगत 200 वर्षों में जैन विद्वानों के अतिरिक्त जैनेतर भारतीय विद्वानों तथा यूरोपवासी प्राच्यविदों, पुरातत्वविदों, राजनीतिक-साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल रहे जिन्होंने इनके समय, इतिवृत्त, कृतित्व आदि के बारे में ऊहापोह की। प्रो. विल्सन अकलंक के इतिहास पर प्रकाश डालनेवाले प्रथम यूरोपीय प्राच्यविद् थे। उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्नल मेकेन्जी के नोट्स, जो 'राजावलिकथे' के रचयिता पं. देवचन्द्र से प्राप्त जानकारी पर आधारित थे, को व्यवस्थित और सम्पादित कर प्रकाशित किया था। इसी कड़ी में जानमुरडोख, बी.एल. राइस, राबर्ट सिवेल, थामस फोक्स लुइस राइस, एडवर्ड राइस, जे. एफ. फ्लीट, ई.थामस, ए.बी.कीथ, विन्टरनिट्ज के नाम जुड़े हैं। जैनेतर भारतीय विद्वानों में सतीशचन्द्र विद्याभूषण, रामकृष्ण गोपाल भण्डारकार, के.बी. पाठक, एम.एस. रामास्वामी आयंगर. ए.एस. आल्तेकर डॉ. बी.ए. साल्तोर डॉ. डी.सी. सरकार. आर नरसिंहाचार्य शेषागिरि राओ, पी.बी. देसाई, डॉ. श्रीकंठ शास्त्री प्रभृति तथा जैन विद्वानों में डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, पं. सुखलाल तथा डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के अतिरिक्त पं. नाथूराम प्रेमी, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, बा. कामताप्रसाद, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, डॉ. हीरालाल, डॉ. ए.एन. उपाध्ये, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री प्रभृति इन अकलंकदेव पर कार्य करनेवालों में उल्लेखनीय हैं।
यह प्रसन्नता का विषय है कि वर्तमान शती में अकलंक की प्रायः सभी कृतियों का अधिकारी विद्वानों द्वारा कुशल सम्पादन और प्रकाशन हो चुका है। इनकी कृतियाँ इनकी अद्वितीय प्रतिभा, अगाधविद्वता, प्रौढ़ लेखनी, गूढ़ अभिसंधि, अपूर्व तार्किकता एवं वाग्मिता, जैनदर्शन की प्रभावना की उत्कट अभिलाषा, उदात्त कारुण्य भाव, अनेकान्तदर्शन पर उनके पूर्ण अधिकार, जैनेतर दार्शनिक साहित्य के गंभीर आलोडन और जैन सिद्धान्त, संस्कृत भाषा एवं व्याकरण में विचक्षण पाण्डित्य की परिचायक हैं। ___ अपने समय से लेकर आज तक अविरल विद्वज्जन को अपने पाण्डित्य से मुग्ध करनेवाले तथा परमगम्भीर स्याद्वाद जिसकी निर्विवाद पहचान है ऐसे जिनशासन की चिरकाल तक प्रभावना करनेवाले सातवीं शती ईस्वी में हुए इन महान आचार्य भट्ट अकलंकदेव को मेरा शत-शत नमन है।
ज्योतिनिकुंज, चारबाग,
लखनऊ-226004