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जैनविद्या - 20-21 (अनुमान्यतः चौथी शती ई.) के 'जल्पनिर्णय' का अकलंक के 'सिद्धिविनिश्चय' के 'जल्पसिद्धि अधिकार' पर प्रत्यक्ष प्रभाव बताया जाता है और कहा जाता है कि उन्होंने उमास्वामी के 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' पर अपने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' की रचना में देवनन्दी पूज्यपाद (475-525 ई.) की 'सर्वार्थसिद्धि टीका' को समाहित किया है । बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के 'त्रिलक्षणसिद्धान्त' के खण्डन में पात्र-केसरी स्वामी (लगभग 600-625 ई.) जिनका अकलंक ने स्वामी नाम से उल्लेख किया है, द्वारा लिखे गये 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामक ग्रन्थ से उद्धरण भी दिये हैं।
'अकलंकस्तोत्र' के नाम से प्राप्त 16 पद्यों की रचना को स्वयं अकलंक की कृति भी कहा जाता है, उसके निम्नलिखित 13वें पद्य में इस बात का उल्लेख है कि उन्होंने राजा हिमशीतल की सभा में क्योंकर बौद्ध विद्वानों का भाण्डा फोड़कर उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया' था
नाहकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणं केवलं, नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया। राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विद्ग्धात्म!
बौद्धौधान्सकलान्विजित्य सघटः (पाठान्तर सुगतः) पादेन विस्फालितः॥ यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में, विशेषकर कर्णाटक राज्य में, प्राप्त 10वीं शती ईस्वी से 16वीं शती ईस्वी तक के कम से कम 28 शिलालेखों में विवेच्य अकलंकदेव का स्पष्ट नामोल्लेख के साथ स्मरण किया गया है और उनका गुणगान भी हुआ है। श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ बसति में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण शक संवत् 1050 (1128 ई.) के लेख, जो मदन महेश्वर मल्लिनाथ द्वारा रचित और द्रमिलसंघ-नन्दिगण-अरूङ्गलान्वय के मल्लिषेण मलधारि की स्मारक प्रशस्ति स्वरूप हैं, में अकलंक द्वारा बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित करने की घटना राजा साहसतंग को सनाने का वर्णन करते हए 'अकलङकस्तोत्र' का उपर्यक्त श्लोक भी अंकित है और यह श्लोक बोगादि से प्राप्त शक संवत् 1067 (1145 ई.) के द्रमिलसंघी एक अन्य शिलालेख में भी पाया गया है। 'अकलंकस्तोत्र' में उक्त वादविजय का वर्ष भी निम्नवत अंकित है
विक्रमाक शकाब्दीय शतसप्त प्रमाजुषि।
कालेडकलक यतिनोबौद्धर्वादो महानभूत्॥ इस श्लोक में प्रयुक्त 'विक्रमांक शकाब्दीय' शब्दों के कारण कतिपय विद्वानों ने इसे शक संवत् 700 अर्थात् 778 ई. तथा कुछ अन्य ने विक्रम संवत् 700 अर्थात् 643 ई. माना है, और इस प्रकार विवेच्य भट्ट अकलंकदेव के समय के सम्बन्ध में मुख्यतया दो मत हो गये, जिनमें 135 वर्ष का अन्तर है। किन्तु सातवीं-आठवीं शती ई. में पाये गये परवर्ती साहित्यिक उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि उक्त ऐतिहासिक वाद-विवाद की तिथि विक्रम संवत् 700 अर्थात् 643 ई. मानना ही समीचीन होगा।