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जैनविद्या - 20-21 (ग) आठवीं शती में इनका प्रमाण' अपश्चिमरत्न माना जाने लगा था। श्वेताम्बर आचार्य इनके
द्वारा प्रतिपादित 'न्यायशास्त्र' को 'अकलङ्कन्याय' के नाम से अभिहित करने लगे थे। (घ) इन्हें 'पूज्यपाद भट्टारक', 'देव', 'भट्टाकलङ्क', 'तार्किकलोकमस्तकमणि', ___ 'तर्कीब्जार्क', 'सकल तार्किक चक्रचूड़ामणि', 'वादिसिंह तर्क भूवल्लभदेव', 'इतर
मतावलम्बी गजेन्द्रों का दर्प नष्ट करनेवाला सिंह', 'परवादीभ केसरी', 'महाप्राज्ञ',
'महर्द्धिक' आदि नामों, विशेषणों और विरूदों से अभिहित किया गया। (ङ) 10-11वीं शती में अकलंक द्वारा बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित करने की घटना अनुश्रुति
बन चुकी थी और उनके जीवन की घटनाएं पौराणिक आख्यान का रूप धारण करने लगी थी जो उत्तरोत्तर और पल्लवित होती गयी। अकलंक की बौद्धों पर ऐतिहासिक वादविजय का स्थान महाराज हिमशीतल की राजसभा के रूप में लगभग 11-12वीं शती में प्रसिद्ध
हो चला था। (च) न्यायशास्त्र और व्याकरण में पण्डित माने जानेवाले इन अकलंकदेव के ब्राह्मण कुलोत्पन्न
होने की बात प्रचलित हुई। स्वयं अकलंक ने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' की प्रशस्ति में निम्नपद्य में अपने को लघुहव्वनृपति का पुत्र बताया है
जीयाच्चिरमकलकब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनयः।
अनवतरतनिखिल विद्वज्जननुतविधः प्रशस्तजनहृद्यः॥ ये लघुहव्व नृपति कौन थे, किस प्रदेश के राजा थे, किस कुल में उत्पन्न हुए थे और किस धर्म को माननेवाले थे-आदि प्रश्नों के उत्तर इस पद्य अथवा अन्य किसी स्रोत से अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है। 'राजवात्तिक' के उपर्युक्त श्लोक के स्वयं अकलंककृत होने में भी कुछ विद्वानों को संदेह है। तथापि यह निश्चित है कि अकलंक दक्षिण भारत के रहने वाले थे। परम्परा अनुश्रुति उन्हें देवगण का आचार्य सूचित करती है और कर्णाटकीय अनुश्रुति उन्हें देशीगण पुस्तकगच्छ का।
उन्होंने बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया था। साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों का उन्हें प्रगाढ़ ज्ञान था, वे पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के साहित्य से भलीभाँति परिचित थे। 'पातन्जलि महाभाष्य' (लगभग 150 ई. पू.) की अकलंक ने आलोचना की है। शब्दाद्वैतवादी या स्फोटवादी भर्तृहरि (590-650 ई.) के 'वाक्यपदीय' ग्रन्थ के अकलंक ने उद्धरण भी दिये और उनके मत का खण्डन भी किया। बौद्धाचार्य बसुबन्धु (चौथी शती ई.) के अभिधर्मकोश' से अकलंक ने प्रमाण उद्धृत किये हैं। बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग (345-425 ई.) के मत का उन्होंने उल्लेख किया है और उनके 'प्रमाणसमुच्चय' ग्रन्थ से कारिका भी उद्धृत की हैं। बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति (635-650 ई.) के ग्रन्थों का अकलंक ने अच्छा मंथन किया प्रतीत होता है। अपनी कृतियों में कहीं-कहीं उनकी शैली भी अपनायी है और उनका खण्डन भी किया है। जैनाचार्य श्रीदत्त