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जैनविद्या - 20-21
19 34. अभयचन्द्र सिद्धान्त, जिन्होंने 'लघीयस्त्रय' पर वृत्ति रची, ने भी लघु समन्तभद्र द्वारा प्रयुक्त
उपर्युक्त विशेषणों का प्रयोग अकलंक के लिए किया है। 35. 'प्रवचन परीक्षा' आदि के कर्ता नेमिचन्द्र पण्डित (लगभग 1375-1425 ई.) ने अकलंक
को अपनी भांति ब्राह्मणकुलोत्पन्न बताया है, तथा “विवाद विषयापन्नं ततः शास्त्रं सकर्तृकम्, दृष्टकर्तृकतुल्यत्वादकलङ्कादि शास्त्रवत्" आदि शब्दों से इनका उल्लेख
किया है। 36. भट्टारक धर्मभूषण (लगभग 1385-1415 ई.) ने अपनी न्यायदीपिका' में अनेक स्थलों
पर 'तदुक्तं भगवद्भिरकलङ्कदेवै:....' शब्दों के साथ इनके 'न्यायविनिश्चय' और
'राजवार्तिक' आदि से उद्धरण दिये हैं। 37. विद्यानंदि मुमुक्षु (लगभग 1442-1480 ई.) ने अपने 'सुदर्शन चरित्र' में
यस्ययशोरवेर्नष्टा कृष्णास्याबौद्धकौशिकाः। स्तष्येऽकलङ्कसरि तं मोहसारङ्गकन्धरम्॥
तथा यस्य वाक्किरणैर्नष्टा बौद्धोधाः कौशिकाः।
भास्करस्योदये स स्यादकलकः श्रिये कविः॥ के रूप में इनकी स्तुति की है। 38. ब्रह्म अजित ने अपने 'हनुमच्चरित' में (लगभग 1445 ई.) में इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उन्होंने बौद्धों की बुद्धि को विधवा बना दिया था
अकलङ्कगुरू र्जी यादक लङ्क पदेश्वरः।
बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहृतः॥ 39. पांङ्यक्ष्मापति (1457 ई.) ने अपने ‘भव्यानन्दशास्त्र' में इनकी स्तुति
"गुणैरनिन्धैकरकलङ्यकमीडे" रूप में की है। . 40. श्रुतसागर सूरि (लगभग 1465-1505 ई.) ने अपनी 'तत्वार्थवृत्ति' के मंगल-श्लोक
"श्रीवर्द्धमानमकलंकम् समन्तभद्र श्री पूज्यपाद...' में इनका स्मरण किया है। 41. ब्रह्मनेमिदत्त ने अपने 'आराधना कथाकोश' (1518 ई.) में अकलंक और निष्कलंक की
कथा दी है, जो अनुश्रुतियों पर आधारित है। 42. वर्धमान मुनीन्द्र ने अपने 'दशभक्त्यादि महाशास्त्र' (1542 ई.) में समन्तभद्र के उपरान्त और विद्यानन्दि के पूर्व अकलंक महर्द्धिक की स्तुति निम्नवत की है
जीयात् समन्तभद्रस्य देवागम संज्ञिनः, स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलको महर्द्धिकः।