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________________ 18 जैनविद्या - 20-21 25. श्वेताम्बर आचार्य वादिदेव सूरि (लगभग 1117-1169 ई.) ने अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (पृष्ठ 137) में "प्रकटित तीर्थान्तरीयकलङ्कोऽकलङ्कः" शब्दों द्वारा उन्हें मतान्तरों के दोषों को प्रकट करनेवाला बताया है। 26. श्वेताम्बराचार्य शांतिसूरि ने सिद्धसेन के 'न्यायावतार' पर वार्त्तिक रचे हैं और उनकी वृत्ति भी। यही ग्रन्थ सम्भवतया 'जैनतर्कवार्त्तिक' कहलाता है। इन वार्त्तिकों में अकलंक का प्रभाव स्पष्ट है । इन शान्तिसूरि की पूर्वावधि 993 ई. और उत्तरावधि 1147 ई. अनुमानित की गई है। 27. अनन्तसेन के शिष्य विमलदास (लगभग 1150 ई.) ने अपनी 'सप्तभंगीतरंगिणी' में 'भट्टाकलङ्कदेव' के नामोल्लेखपूर्वक उद्धरण दिये हैं। 28. पद्मप्रभमलधारिदेव (लगभग 1167-1217) ई.) ने 'नियमसार' की 'तात्पर्यवृत्ति' में अकलंक को 'तर्काब्जार्कः' लिखा है। 29. 'प्रमेयरत्नमाला' की 'न्यायमणि दीपिका टीका' में,अजितसेन पण्डित (लगभग 1175 1200 ई.) ने महाराज हिमशीतल की सभा में तारादेवी को घड़े में छिपाकर शास्त्रार्थ करनेवाले बौद्ध विद्वानों को अकलंक द्वारा वादविवाद में परास्त किये जाने का वर्णन किया है, तथा अन्त में 'अकलङ्करत्ननन्दिप्रभेन्दु सदनन्त' शब्दों द्वारा रत्ननन्दि, प्रभाचन्द्र और सदनन्तवीर्य के पूर्व अकलंक का उल्लेख कर स्तुति की गई है। 30. लघु समन्तभद्र (लगभग 1200 ई.) में 'अष्टसहस्री' की अपनी 'विषमपद तात्पर्य टीका' के मंगल-श्लोक में समन्तभद्र एवं विद्यानन्द के साथ-साथ अकलंक को भी 'देव' नाम से नमस्कार किया है तथा आगे 'सकल तार्किक चक्रचूड़ामणि मरीचिमेचकित चरणनखकिरणों भगवान् भट्टाकलंकदेवः' शब्दों द्वारा इनकी स्तुति की है। 31. चारूकीर्ति पंडिताचार्य (लगभग 1200-1225 ई.) ने 'प्रमेयरत्नमाला' की अपनी 'अर्थप्रकाशिका टीका' में महाराज हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त करनेवाले अकलंक मुनि की निम्नवत वन्दना की है- 'पृथ्वीमण्डलमण्डनायित महाराजाधिराजोत्तम, श्रीराजद्धिमशीतल क्षितिपते-र्गोष्ठीमते सौगतान्। वादाययततो मदोद्धततया यो वाग्भरै जित्वरै, जित्वा श्लाघ्यतमोऽभवसपदि तं वन्देऽकलङ्कमुनिम्।' उक्त टीका में अन्यत्र भी 'न्यायशास्त्रप्रवर्तनशिरोमणिभिर्भटा कलङकमुनिभिस्तदवगाहनाय....' आदि शब्दों द्वारा इनका गुणगान किया गया है। 32. सौख्यनन्दी (लगभग 1200 ई.) ने इनके 'लघीयस्त्रय' की प्रभाचंन्द्रीय टीका 'न्यायकुमुदचन्द्र' की वृत्ति लिखी है। 33. लक्ष्मीभद्र (लगभग 1235 ई.) ने अपने 'एकान्त खण्डन' में इनका स्मरण किया है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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