SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17 जैनविद्या - 20-21 14. श्वेताम्बराचार्य तर्कपंचानन अभयदेव सूरि (लगभग 1000 ई.) ने सन्मतिसूत्र' पर अपनी 'वादमहार्णव' नाम्नी टीका में अकलंक के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया है। 15. वादिराज जगदेकमल्लवादी (लगभग 1000-1035 ई.) ने अपने 'न्यायविनिश्चय विवरण' में अकलंक को 'तार्किकलोक-मस्तकमणि' तथा 'पार्श्वनाथ चरित' में 'शाक्यदस्युओं को दण्डित करनेवाला वादिसिंह तर्कभूवल्लभदेव' लिखा है। 16. नयनंदि (लगभग 1000-1045 ई.) ने अपने 'सकलविधिविधान' में इन्हें 'अकलङ्क विसमवाइय विहंडि' अर्थात् विषमवादियों का विहंडन करनेवाला लिखा है। 17. महापण्डित प्रभाचन्द्र (लगभग 1010-1060 ई.) अकलंक की कृतियों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। उनके 'न्यायकुमुदचन्द्र' आदि ग्रन्थों में अकलंक के उल्लेख इतने भक्तिपूर्ण हैं कि अनेक विद्वान उन्हें अकलंक का साक्षात् शिष्य समझने लगे। 'न्यायकुमुदचन्द्र' के तीसरे परिच्छेद के अन्त में उन्होंने अकलंकदेव को 'इतर मतावलम्बी गजेन्द्रों का दर्प नष्ट करनेवाला सिंह' लिखा है। अपने 'आराधना सत्कथा प्रबन्ध' में उन्होंने अनुश्रुति से प्राप्त अकलंक की कथा भी दी है। 18. मल्लिषेण सूरि ने अपने 'महापुराण' (1047 ई.) में निम्नवत इनकी स्तुति की है यन्नाम ग्रहणान्नष्टाः सदर्पवादि कुन्जराः। जीयाद्देवोऽकलंकोऽसो परवादीभ केसरी॥ 19. शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' (लगभग 1050 ई.) में समन्तभद्र और देवनन्दी के पश्चात् तथा जिनसेन के पूर्व इनका उल्लेख किया है। 20. इन्द्रनन्दि ने अपने 'समयभूषण' (लगभग 1050 ई.) में सोमदेव, नेमिचन्द्र और प्रभाचन्द्र के पूर्व अकलंक का स्मरण 'महाप्राज्ञः' विशेषण के साथ किया है। 21. श्रीचन्द्रपण्डिताचार्य (लगभग 1063-66 ई.) ने अपने अपभ्रंश 'आराधना कथाकोश' में अकलंक की कथा दी है तथा अपने 'रत्नकरण्ड शास्त्र' में समन्तभद्र के पश्चात् और कुलभूषण, विद्यानन्दि, अनन्तवीर्य, वीरसेन, जिनसेन, चतुर्मुख, स्वयंभू आदि के पूर्व अकलंक का स्मरण किया है। 22. लघु अनन्तवीर्य (1105-1117 ई.) ने ‘परीक्षामुख' की 'प्रमेयरत्नमाला टीका' में 'अकलंक शशांकेर्यतप्रकटीकृतमखिलमाननिभनिकरम्' शब्दों द्वारा इनकी प्रशंसा की है। 23. श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र सूरि (लगभग 1109-1172 ई.) ने अपने 'प्रमाण मीमांसा' आदि ग्रन्थों में अकलंकदेव के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है। 24. श्वेताम्बर आचार्य श्रीचन्द्र सूरि (लगभग 1116-1117 ई.) ने अपनी 'जीतकल्प वृहत्चूर्णि व्याख्या' में अकलंक के 'सिद्धिविनिश्चय' को 'प्रभावक शास्त्र' लिखा है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy