SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या - 20-21 15 इसका अर्थ है- अकलंक का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनञ्जय कवि का काव्य ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं। धनञ्जय कवि का समय 8वीं शती ईस्वी के लगभग अनुमान किया जाता है। अतः जिन अकलंक के प्रमाण सम्बन्धी ग्रन्थ की कवि धनञ्जय ने इस प्रकार सराहना की है, वह डॉ. जैन द्वारा क्रमांक 1 पर उल्लिखित अकलंकदेव ही हैं और वही 'प्रमाणसंग्रह' के कर्ता और उक्त लोकप्रिय मंगल-श्लोक के रचयिता हैं। विवेच्य अकलंकदेव या भट्टाकलंकदेव को आचार्य उमास्वामी (प्रथम शती ईस्वी) के 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका', आचार्य समन्तभद्र (दूसरी शती ईस्वी) की 'आप्तमीमांसा' अपरनाम 'देवागम स्तोत्र' पर 'अष्टशती टीका' तथा स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में 'स्वोपज्ञवृत्तिसहित लघीयस्त्रय', 'न्यायविनिश्चय सवृत्ति', 'सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति' तथा 'प्रमाणसंग्रह सवृत्ति' की रचना करने का श्रेय है। कहा जाता है कि समसामयिक मीमांसक विद्वान् कुमारिल भट्ट (600-660 ई.) ने अपने ' 'श्लोकवार्तिक' में अकलंक की 'अष्टशती' पर कटाक्ष किये थे और अकलंक ने कुमारिल भट्ट को उनके प्रत्युत्तर अपने 'न्यायविनिश्चय' में दिये। कवि धनञ्जय के अतिरिक्त जिन परवर्ती आचार्यों, विद्वानों और साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में इन अकलंक का स्मरण या उल्लेख किया है अथवा उनकी कृतियों से उद्धरण आदि दिये हैं, उनका ज्ञात संक्षिप्त विवरण निम्नवत है1. जिनदासगणि महत्तर ने अपनी 'निशीथचूर्णि' (676 ई.) में 'सिद्धिविनिश्चय' को - 'प्रभावक शास्त्र' घोषित किया है। 2. 750 ई. के लगभग या उसके कुछ पूर्व हुए वृहद् अनन्तवीर्य, सगुणचन्द्र अपरनाम प्रभाचन्द्र और अनन्तकीर्ति प्रथम इनकी रचनाओं के प्रारंभिक व्याख्याता रहे। 3.: 750 ई. के लगभग हुए 'न्यायावतार' के कर्ता सिद्धसेन पर अकलंक का प्रभाव व्यक्त है। 4. सिद्धसेन गणी ने अपने 'तत्त्वार्थभाष्य' (लगभग 750 ई.) में अकलंक के 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख किया है और उनकी 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' के कई दार्शनिक मन्तव्यों को भी ग्रहण किया है। 5. स्वामी वीरसेन ने 780 ई. में समाप्त अपनी विशालकाय 'धवला टीका' में 'पूज्यपाद भट्टारक' नाम से कई स्थलों पर अकलङ्क का उल्लेख किया है, तथा इसी नाम से उनके 'तत्त्वार्थभाष्य' (तत्त्वार्थराजवार्तिक) एवं 'सारसंग्रह' (प्रमाणसंग्रह सवृत्ति) से उद्धरण दिये हैं। 6. श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र सूरि (समय लगभग 725-825 ई.) ने अपनी 'अनेकान्तजयपताका' में 'अकलंक न्याय' का स्पष्ट उल्लेख किया है और इनके दार्शनिक प्रकरणों में भी अकलंक का प्रभाव एवं अनुसरण व्यक्त होता है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy