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जैनविद्या - 20-21
पृथ्वीरामरट्ट के शिलालेख में और 980 ई. के चालुक्य तैलपदेव के सामन्त और सौंदत्ति के उक्त रट्टराज पृथ्वीराम के पौत्र शान्तिवर्मन द्वारा कण्डूरगण के मुनियों को दान दिये जाने सम्बन्धी शिलालेख में यह मंगल श्लोक प्रयुक्त हुआ पाया जाता है। 11वीं शती के 18 और 12वीं शती के 65 शिलालेखों, दानपत्रों आदि में भी इस श्लोक का मंगलाचरणरूप में प्रयोग हुआ पाये जाने का उल्लेख डॉ. जैन ने किया है।
यद्यपि और भी भिन्न-भिन्न मंगल श्लोक तत्कालीन जैन अभिलेखों और जैन शिलालेखों में प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु जितनी अधिक संख्या में उक्त श्लोक मंगलाचरण स्वरूप प्रयुक्त हुआ पाया गया है वह इसकी लोकप्रियता का परिचायक है। शिलालेखों और अभिलेखों में ही नहीं, दक्षिण भारत में मध्यकाल में रचे गये अनेक ग्रन्थों में भी इस श्लोक का मंगलाचरण के रूप में प्रयोग हुआ बताया जाता है और यही नहीं कितने ही जैनेतर अभिलेखों में भी इसे मात्र इस संशोधन के साथ कि 'जिनशासनम्' के स्थान पर 'शिवशासनम्' प्रतिस्थापित कर दिया गया, अपनाया गया बताया जाता है।
प्रभूत प्रयोग के कारण विद्वानों का ध्यान इस श्लोक की ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। अपूर्व शब्द-विन्यासवाला और अर्थगाम्भीर्य से परिपूर्ण यह श्लोक स्याद्वाद सिद्धान्त के किसी दिग्गज आचार्य, भाषा-पण्डित और अत्यधिक प्रभावक विद्वान् द्वारा रचित होना चाहिये, इस बात में तो कोई सन्देह नहीं था, किन्तु इसका मूलस्रोत क्या है, रचयिता कौन है, इसकी जानकारी अब से लगभग 60 वर्ष पहले तक नहीं थी। यह अनुमान किया जाता था कि जिस प्रकार अनेक जैनेतर अभिलेखों का मंगल-श्लोक 'नमस्तुङ्ग...' महाकवि बाणभट्ट के 'हर्षचरित' के मंगलाचरण से अभिन्न सिद्ध हुआ है, यह श्लोक भी संभवतया किसी प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ का मंगलश्लोक आदि रहा होगा। अकलंक रचित 'प्रमाणसंग्रह' का उल्लेख अकलंक के कई टीकाकारों ने किया था, किन्तु इसकी मूल या सटीक प्रति उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी और न्यायाचार्य डॉ. महेन्द्रकुमारजी उसकी खोज में थे। अन्ततः पाटन के जैन पुस्तक भण्डार में उन्हें उक्त ग्रन्थ की प्रति प्राप्त हुई। इस ग्रन्थ को देखने पर विदित हुआ कि उक्त मंगल-श्लोक 'प्रमाणसंग्रह' का मंगल-श्लोक है और इसके रचयिता अकलंक हैं। ___ जैन परम्परा में अकलंक नाम के लगभग दो दर्जन आचार्य, विद्वान, मुनि हुए हैं जिनका परिचय-विवरण डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने अपने 'जैन-ज्योतिः ऐतिहासिक व्यक्तिकोश-प्रथम खण्ड' में पृष्ठ 3-6 पर दिया है। उनमें क्रमांक 1 पर उल्लिखित अकलंकदेव (7वीं शती ईस्वी) को छोड़कर शेष अकलंक 11वीं शती के उपरान्त के विद्वान हैं। महाकवि धनञ्जय की 'नाममाला' में एक श्लोक आया है
प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्। धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्॥