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जैनविद्या - 20-21
अप्रेल - 1999-2000
जिन-शासन के प्रभावक आचार्य अकलंक
- श्री रमाकान्त जैन
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम्।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम्॥ अर्थात् उस जिन-शासन (जैन धर्म) की जय हो जो उन त्रैलोक्यनाथ (जिनेन्द्रदेव) का शासन (धर्म) है जिनका अमोघ लाञ्छन (निर्विवाद पहचान) परम गम्भीर स्याद्वाद सिद्धान्त है।
यह श्लोक डॉ. बी.ए. साल्तोर ने सन् 1938 ई. में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'मेडिवल जैनिज्म' में मंगलाचरण के रूप में प्रयुक्त किया है। यही श्लोक दक्षिण भारत में कर्णाटक राज्य में प्राप्त 8वीं शती ईस्वी से 12वीं शती ईस्वी तक के अनगिनत जैन शिलालेखों में मंगलाचरण के रूप में प्रयुक्त हुआ पाया गया है।
हुम्मच के सान्तर वंश के संस्थापक जिनदत्तराय का शिलालेख अब तक ज्ञात और उपलब्ध शिलालेखों में प्रथम शिलालेख है जिसमें यह मंगल-श्लोक प्रयुक्त हुआ है। इस लेख में यद्यपि वर्ष संख्या नहीं दी है, किन्तु सम्वत्सर का नाम 'साधारण' दिया है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने 'जैन संदेश-शोधाङ्क 4', पृष्ठ 132-133 पर सान्तर वंश की वंशावली के परिप्रेक्ष्य में इस बात को दृष्टिगत रखते हुए कि 8वीं शती में सम्वत्सर 'साधारण' दो बार पड़ा था, सान्तर वंश के संस्थापक जिनदत्तराय और उसके द्वारा उत्कीर्ण कराये गये इस शिलालेख का समय 8वीं शती ईस्वी के मध्य के लगभग रहे होने की संभावना व्यक्त की है। तदनन्तर 875 ई. के सौंदत्ति के