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________________ जैनविद्या - 20-21 भावना मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानविनयेषु। परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाखो मैत्री॥1॥ स्वकायवाङ्मनोभिः कृतकारितानुमतविशेषणैः परेषां दुःखानुत्पत्तौ अभिलाषः मित्रस्य भावः कर्म वा मैत्री। वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः॥2 ॥ वदनप्रसादेननयनप्रह्लादनेन रोमाञ्चोद्भवेन स्तुत्यभीक्ष्णसंज्ञासंकीर्तनादिभिश्च अभिव्यज्यमानाऽन्तर्भक्तिरागः प्रकर्षण मोदः प्रमोदः इत्युच्यते। दीनानुग्रहभावः कारुण्यम्॥ 3 ॥शारीरमानसदुःखाभ्यर्दितानां दीनानां प्राणिनां अनुग्रहात्मकः परिणामः करुणस्य भावः कर्म वा कारुण्यमिति कथ्यते। रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताऽभावो माध्यस्थ्यम्॥4 ॥रागात् द्वेषाच्च कस्यचित् पक्षे पतनं पक्षपातः तदभावात् मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, मध्यस्थस्य भावः कर्म वा माध्यस्थ्यम्। तत्त्वार्थराजवार्तिक, 7.11 प्राणिमात्र में मैत्री, गुणीजनों में प्रमोद, दुःखी जीवों में करुणा तथा विरुद्धचित्तवालों में माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए। मन-वचन-काय कृत-कारित और अनुमोदन हर प्रकार से दूसरे को दु:ख न होने देने की अभिलाषा को मैत्री कहते हैं । मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आह्लाद, रोमाञ्च, स्तुति, सद्गुण-कीर्तन आदि के द्वारा प्रकट होनेवाली अन्तरंग की भक्ति और राग प्रमोद है । शारीर और मानस दु:खों से पीड़ित दीन प्राणियों पर अनुग्रहरूप भाव कारुण्य है। रागद्वेषपूर्वक किसी एक पक्ष में न पड़ने के भाव को माध्यस्थ्य भाव-तटस्थ भाव कहते हैं। अनु. - प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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