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जैनविद्या - 20-21
(9) अकलंकदेव - इन्हें अकलंक प्रतिष्ठापाठ या प्रतिष्ठाकल्प का रचयिता कहा जाता है। इसमें 9वीं सदी से लेकर सोमसेन के त्रिवर्णाचार (1702 ई.) तक के उल्लेख तथा उद्धरण पाये जाते हैं। इनका समय 18वीं. सदी का पूर्वार्द्ध है।
(10) अकलंक - 'परमागमसार' नामक कन्नड़ ग्रंथ के रचयिता।
(11) अकलंक - चैत्यवन्दनादि प्रतिक्रमणसूत्र, साधुश्राद्ध प्रतिक्रमण और पदपर्याय मंजरी आदि ग्रंथों के रचयिता। ___ इस तरह श्रीमद्भट्टाकलंकदेव स्वामी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारतीय वाङ्मय के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय है; उन्होंने जैनशासन तथा जैनन्याय के क्षेत्र में मौलिक उपलब्धियाँ प्राप्त की तथा दुरूह और प्रामाणिक ग्रंथों की रचना कर भगवती भारती के भण्डार को समृद्ध और सम्पन्न किया है, ऐसे युगपुरुष को शत-शत नमन, शत-शत अभिनन्दन।
अंत में उन सभी मनीषी विद्वानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करता हूँ जिनके ग्रंथों, लेखों तथा सूचनाओं के आधार पर यह आलेख परिपूर्ण हो सका।
1. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. 604 2. वही, पृ. 472 3. पार्श्वनाथचरित, श्री वादिराज कृत 4. एपीग्राफिका इंडिका III, पृ. 106 5. शामगढ़ (कोल्हापुर) का दानपत्र शक सं. 675, इंडियन एन्टीक्वेरी भाग 11, पृ. 11 6. मल्लिवेठा (शक सं. 1050 तदनुसार 1128 ई.) की प्रशस्ति में
श्रुति-कुटीर 68, विश्वास नगर शाहदरा - दिल्ली 110032