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जैनविद्या - 20-21
सिद्धिविनिश्चय-अकलंकदेव की यह एक अति महत्वपूर्ण कृति है। इसमें 12 प्रस्ताव हैं जिनमें प्रमाण नय और निक्षेप का विशद विवेचन है। प्रस्तावों के नाम निम्न प्रकार हैं(1) प्रत्यक्ष सिद्धि, (2) सविकल्प सिद्धि, (3) प्रमाणान्तर सिद्धि, (4) जीव सिद्धि, (5) जल्प सिद्धि, (6) हेतुलक्षण सिद्धि, (7) शास्त्र सिद्धि, (8) सर्वज्ञ सिद्धि, (9) शब्द सिद्धि, (10) अर्थनय सिद्धि, (11) शब्दनय सिद्धि और (12) निक्षेप सिद्धि। इनके नामों से प्रस्ताव गत विषयों का ज्ञान सरलता से प्रतीत हो जाता है। इन प्रस्तावों के क्रमिक विकास की दृष्टि से ये 12 प्रस्ताव चार भागों में विभाजित किए गये हैं- (1) प्रमाण मीमांसा, (2) प्रमेय मीमांसा, (3) नय मीमांसा और (4) निक्षेप मीमांसा। इस संक्षिप्त विवेचन से ग्रंथ की महत्ता का आभास मिल जाता है। इस तरह अकलंक की कृतियां जैनशासन की महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान रचनाएँ हैं।
प्रमाण संग्रह-इस ग्रंथ के विषय में 'यथा नाम तथा गुण की उक्ति चरितार्थ होती है; इसमें प्रमाणों और युक्तियों का संग्रह विद्यमान है। इस ग्रंथ की भाषा एवं विषय शैली दोनों ही अत्यधिक जटिल और दुरूह है। यह लघीयस्त्रय और न्याय विनिश्चय से भी अधिक दुरूह और कठिन है। सारा ग्रंथ प्रमेयबहुल है, इसमें नौ प्रस्ताव तथा 877, कारिकाएं हैं। इस पर ग्रंथकर्ता ने कारिकाओं के अतिरिक्त पूरकवृत्ति भी लिखी है। इस तरह गद्य-पद्यमय संपूर्ण ग्रन्थ का प्रमाण अष्टशती के बराबर ही हो जाता है। इस ग्रंथ पर अनन्तवीर्यकृत प्रमाण संग्रहालंकार नामकी कोई टीका रही है जिसका उल्लेख सिद्धिविनिश्चय टीका के पृ. 8, 10 और 130 पर निर्दिष्ट है। .
ग्रंथ के प्रथम प्रस्ताव में नौ कारिकाएँ हैं जिनमें प्रत्यक्ष काल श्रुत, अनुमान और आगमपूर्वक दिया है तथा प्रमाण वा फलादि की चर्चा है। दूसरे प्रस्ताव में भी नौ कारिकाएँ हैं जिनमें परोक्ष के भेद स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्कादि का विवेचन किया गया है। तीसरे प्रस्ताव में दस कारिकाएँ हैं जिनमें अनुमान के अवयव, साध्य, साधन और साध्याभास का लक्षण, सदैकान्त में साध्य प्रयोग की असंभवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तु की साध्यता और उसमें दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषों के निराकरण आदि की चर्चा है । चौथे प्रस्ताव में साढ़े ग्यारह कारिकाओं द्वारा त्रिरूप का निराकरण, अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु का समर्थन, और हेतु के उपलब्धि-अनुपलब्धि आदि भेदों का विवेचन तथा कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओं का समर्थन है। पाँचवें प्रस्ताव में साढ़े दस कारिकाओं द्वारा विरुद्धादि हेत्वाभासों का वर्णन है । छठे प्रस्ताव में 12'/, कारिकाओं द्वारा वाद का लक्षण जय-पराजय व्यवस्था का स्वरूप, जाति का लक्षण आदि वाद संबंधी विवेचन है और अंत में धर्मकीर्ति द्वारा परिवादियों के प्रति जाड्यादि अपशब्दों के प्रयोग का उत्तर दिया है। सातवें प्रस्ताव में दस कारिकाओं द्वारा प्रवचन का लक्षण, सर्वज्ञता का समर्थन, अपौरुषेयत्व का खण्डन, तत्वज्ञान चारित्र की मोक्षहेतुता की चर्चा है । आठवें प्रस्ताव में तेरह कारिकाओं द्वारा सप्तभंगी और नैगमादि नयोंका निरुपण है। नौवें प्रस्ताव में दो कारिकाओं द्वारा प्रमाण, नय और निक्षेप का उपसंहार किया है। इस तरह अकलंकदेव की सभी कृतियां अति महत्वपूर्ण हैं तथा जैनन्याय के लिए अपूर्व देन हैं।