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________________ जैनविद्या - 20-21 श्रोतव्या अष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्र संख्यानैः ।। इसमें सदैकान्त, असदैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त आदि अनेक एकान्तों की आलोचना करते हुए पाप-पुण्य की चर्चा की है। इसमें आप्त की महत्ता का विवेचन करते हुए वीतराग सर्वज्ञ को ही आप्त सिद्ध किया है और अंत में प्रमाण और नय की चर्चा प्रस्तुत की है। लघीयस्त्रय सविवृत्ति-यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह ग्रंथ हैं। ये प्रकरण हैं(1) प्रमाण प्रवेश, (2) नय प्रवेश और (3) प्रवचन प्रवेश। इसमें कुल 70 मूल कारिकाएं हैं। ग्रंथ को सरलता से अवगाहन हेतु अकलंकदेव ने लघीयस्त्रय पर विवृत्तिरूप व्याख्या प्रस्तुत की है। जो व्याख्या न होकर उसमें सूचित विषयों की पूरक है। इस ग्रंथ के छः परिच्छेद हैं । प्रथम परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता तथा उसके प्रत्यक्ष-परोक्षादि भेदों का विस्तार से विवेचन किया है और पूर्वज्ञानी की प्रमाणता सिद्ध की है। दूसरे परिच्छेद में प्रमेय संबंधी चर्चा विस्तार से की है और नित्यैकान्त तथा क्षणिकैकान्त की चर्चा विशदता से की है। तीसरे परिच्छेद में परोक्ष-प्रमाण संबंधी विषयों की चर्चा की हैं। चौथे परिच्छेद में ज्ञान की एकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणता का निषेध करके प्रमाणभाष का स्वरूप, श्रुत की प्रमाणता और आगम प्रमाण आदि की चर्चा है। पाँचवें परिच्छेद में नयों की विवेचना की है, नय और दुर्नय के लक्षण तथा भेदों की चर्चा है । छठे परिच्छेद में प्रमाण और नय का विवेचन करते हुए सकलादेश विकलादेश पर विचार व्यक्त किए हैं। यह ग्रंथ अकलंकदेव की पहली मौलिक कृति है। न्यायविनिश्चय सवृत्ति-प्रस्तुत ग्रंथ में 480 श्लोक हैं, जो तीन परिच्छेदों में विभक्त हैं(1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान और (3) प्रवचन। संभव है ग्रंथकर्ता ने इस पर भी कोई चूर्णि या . वृत्ति लिखी हो, पर प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध न हो सकी। प्रथम परिच्छेद में प्रत्यक्ष का लक्षण तथा उसके भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा की है और जैनेतर दार्शनिक धर्मकीर्ति, बौद्ध, सांख्य, नैयायिक आदि के द्वारा सम्मत प्रत्यक्ष की डटकर समालोचना और खंडन किया है। __ दूसरे परिच्छेद में अनुमान का लक्षण तथा तत्संबंधी अन्य हेतु व हेत्वाभासों की आलोचना करते हुए अनेकान्त और अकिञ्चित्कर आदि की चर्चा की है। तीसरे परिच्छेद में प्रवचन प्रस्ताव का स्वरूप, सुगत के आप्तत्व का निराकरण, सुगत के करुणऽतत्व तथा चतुरार्थ प्रतिपादकत्व का परिहास, आगम के अपौरुषेयत्व का खण्डन, सर्वज्ञता का समर्थन, मोक्ष और सप्तभंगीका निरूपण, स्याद्वाद में दिये जानेवाले संवायादि दोषों का परिहार तथा प्रमाण के फलादि विषयों का विशदता से विवेचन हुआ है । इस ग्रंथ पर वादिराज द्वारा रचित विस्तृत विवरण उपलब्ध है, जो 'न्यायविनिश्चय विवरण' के नाम से विख्यात है। वादिराज का समय शक संवत् 940 (सन् 1025 ई.) सुनिश्चित है।
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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