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________________ जैनविद्या - 20-21 हैं। इस तरह केवल 135 वर्ष के अन्तराल पर विद्वानों में पक्षभेद है। स्वामी अकलंकदेव ने अपने से पूर्ववर्ती जैनेतर विद्वानों का उल्लेख किया है जैसे भर्तृहरि (600-650 ई.), कुमारिल (600680 ई.), प्रज्ञाकर (670-725 ई.), कर्णक गोमि (690-750 ई.), धर्मकीर्ति (620-690 ई.), धर्मोत्र (650-720 ई.), शान्तरक्षित (705-762 ई.) आदि-आदि। इससे अकलंकदेव का समय सन् 720 से 780 ई. सुनिश्चित होता है। अकलंकदेव का कृतित्व अति महान्, दुरुह एवं गहन-गंभीर है। इनके द्वारा रचित(1) तत्वार्थराजवार्तिक भाष्य, (2) अष्टशती, (3) लघीय स्त्रय सविवृत्ति, (4) न्यायविनिश्चय सवृत्ति, (5) सिद्धिविनिश्चय, (6) प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ। तत्वार्थ राजवार्तिक भाष्य-इस महाग्रंथ में गृद्धपिच्छाचार्य (उमास्वामी) के तत्वार्थसूत्र के 355 सूत्रों में से सरलतम 27 सूत्रों को छोड़कर शेष 328 सूत्रों पर गद्यवार्तिकों की रचना की गई है, जिनकी संख्या दो हजार छ: सौ सत्तर है। इन वार्तिकों द्वारा सूत्रकार के सूत्रों पर संभावित विप्रतिपत्तियों का निराकरण कर सूत्रकार के सूत्रों के मर्म का उद्घाटन किया है। वार्तिक शैली में लिखा यह सर्वप्रथम ग्रंथ है। ग्रंथ की पुष्पिकाओं में इस ग्रंथ का नाम 'तत्वार्थवार्तिक व्याख्यानालंकार' दिया गया है। पूज्यपाद (देवनन्दी) की सर्वार्थसिद्धि (तत्वार्थवृत्ति) का बहभाग इसमें मूलवार्तिक रूप में समाविष्ट हो गया है। इस ग्रंथ की भाषा अत्यंत सरल है जबकि अष्टशती, न्यायविनिश्चय तथा प्रमाण-संग्रहादि की भाषा अत्यंत क्लिष्ट है। यदि अष्टशती पर अष्टसहस्री टीका न होती तो उसका अर्थ समझ पाना अत्यन्त कठिन होता। प्रस्तुत ग्रंथ में द्वादशांग का निरूपण करते समय क्रियावादी, अक्रियावादी और आज्ञानिक में जिन साकल्य, वाष्कल, कुंथुमि, कठ, माध्यन्दिन, मौद, पैप्पलाद, गार्ग्य, मौद्गलायन, आश्वलायन आदि मनीषी ऋषियों का उल्लेख किया है, वे सब ऋग्वेदादि के शाखा ऋषि हैं । इस ग्रंथ में सैद्धान्तिक, भौगोलिक और दार्शनिक सभी चर्चाओं का उल्लेख यथास्थान प्राप्त होता है, ग्रंथ में सर्वत्र सप्तभंगी व अनेकान्तवाद की चर्चा विस्तृत रूप से की गई है। अकलंकदेव अच्छे सुविज्ञ वैय्याकरण भी थे। उन्होंने इस ग्रंथ में जहाँ पूज्यपाद और जैनेन्द्र के व्याकरण संबंधी उल्लेख किए हैं वहाँ पाणिनि और पातंजलि भाष्यकार को भी नहीं भूल पाये हैं। भूगोल और खगोल वर्णन के लिए यतिवृषभ की तिलोय पण्णति का भी उन्होंने भरपूर उपयोग किया है । अत: यह ग्रंथ तत्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में मूर्धन्य और श्रेष्ठ आकर (संग्रह) ग्रंथ है। इसमें अकलंकदेव की विचक्षण प्रतिभा और तीव्र प्रज्ञा के दर्शन जगह-जगह दिखाई देते हैं। इसमें जैनेतर ग्रंथों के उद्धरण बहुलता से प्राप्त होते हैं जिससे उनकी महत्ता का ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है। तत्वार्थसूत्र पर इस जैसा कोई दूसरा भाष्यग्रंथ उपलब्ध नहीं है। ___अष्टशती-यह ग्रंथ स्वामी समन्तभद्राचार्यकृत 'आप्त मीमांसा देवागम स्तोत्र की संक्षिप्त वृत्ति है। इसका जैसा नाम है, वैसे ही 800 श्लोक प्रमाण रचना है। इस पर यदि विद्यानंद स्वामी अष्टसहस्री टीका न लिख जाते तो इसका अर्थ समझ पाना बड़ा दुरुह हो जाता। वैसे अष्टसहस्री भी कोई कम कठिन ग्रंथ नहीं है। अतः विद्यार्थी उपहास में इसे 'कष्टसहस्री' का नाम रूपान्तरित करते हैं। स्वयं विद्यानंद स्वामीजी लिखते हैं
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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